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अंत
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
ते इहां हूं रे आंखु चित्त चेतवणी असार ।
चित्त चिंतवणी चोसठी पंचपद नो अधिकार, कही रामन कहेणे गुंडल गाम मझार । शील रथ नख वर्षे हर्षे श्रावण मासे, श्री गुरुपरसादें कही भूधरे उल्लासे । २७०
इसकी कवि द्वारा स्वयं लिखित प्रति प्राप्त है। प्रथम रचना का रचनाकाल जानने के लिए यदि 'ओल' शब्द को इला मान कर 'एक' अर्थ किया जाय तो १८१७ सं० मिलेगा, वर्ना रचनाकाल शंकास्पद रहेगा।
१८वीं शती के प्रसिद्ध कवि भूधरदास खण्डेलवाल की चर्चा इस ग्रंथ के तृतीय भाग में की जा चुकी है। उन्होंने पार्श्वपुराण सं० १८०९ आदि कुछ रचनायें १९वीं शती में भी की थी । २७१
भूधरमिश्र
आप आगरा के समीपस्थ शाहगंज नामक स्थान के निवासी थे। आपके गुरु का नाम रंगनाथ था। पुरुषार्थ सिद्धुपाय पढ़ कर वे जैन धर्म की तरफ आकृष्ट हुए और इन्होंने इस ग्रंथ का 'भाषा' में अनुवाद सं० १८७१ में लिखा। मिश्र जी अच्छे कवि थे । आपके एक अन्य ग्रंथ 'चर्चा समाधान' का भी उल्लेख मिलता है
'पुरुषार्थ सिद्धुपाय' का मंगलाचरण निम्नवत है—
नमो आदि करता पुरुष आदिनाथ अरिहंत । द्विविध धर्म दातार धुर, महिमा अतुल अनंत। स्वर्गभूमि पातालपति जपत निरंतर नाम, जा प्रभु के जगहंस कौर जगपिंजर विश्राम। जाकौं सुरत सुरत सौं, दुरत दुरन यह भाय, तेज फुरत ज्यों तुरत ही, तिमिर दूर दुरि जाय । २७२
मकन
आपकी भाषा प्रांजल व्रज भाषा है जो आपकी स्थानीय भाषा के साथ ही तत्कालीन काव्यभाषा भी थी।
श्रावक, तपागच्छीय विजयधर्म सूरि > राजविजय के शिष्य थे। आप अच्छे लेखक थे। आपकी कुछ रचनाओं के विवरण- उद्धरण आगे दिये जा रहे हैं- 'शियल
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