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रत्नचंद II - रत्नविजय III
रचनाकाल
अंत
बात रसिक छै अहनी वक्ता छै गुणवंत, विचक्षण जो श्रोता होइ तो, ऊपजै रस अनंत।
इसमें ऊपर बताई गई गुरु परम्परा का उल्लेख स्वयं कवि ने किया है।
चंद्र वसु व्योम इंद्र विचारे, अ संवत् संख्या आणो जी,
आसो सुदि दसमी गुरुवारे, रास पूरोथयो जाणो जी | नेयड मांहि निरुपम सोहे वैराट समो वाराही जी, तिण नयरे चोमासो कीधी, रचना रची सुखदायक जी।
पासठे ढाले करी रचीऔ, श्री शुकराय चरीत्रो जी; रतन कहैं उपसम रस नाही, करयो भवि काया पवित्रो जी । ३१४
इस प्रमुख कृति के अलावा आपकी अन्य रचनाओं 'प्रतिमा स्थापन गर्भित पार्श्वजिन स्तव' और 'चैत्यवंदन संग्रह' का भी उल्लेख मिलता है किन्तु इनके अन्य विवरण-उद्धरणादि उपलब्ध नहीं हो सके।
रत्नविजय || -
आप तपागच्छीय विद्वान् सत्यविजय > कपूरविजय > क्षमाविजय > जिनविजय > उत्तमविजय के शिष्य थे। आपने सं० १८१४ के आसपास सूरत में 'चौबीसी' की रचना की ।
प्रारंभ
रत्नविजय III
सूर्यमंडल पास पसाया, सुरत बिंदर में सुहाया रे;
विकरण योग में द्रनेर काया, चोबीस प्रभु गुण गाया रे |
इस रचना में ऊपर बताई गई गुरु परंपरा का उल्लेख कवि ने किया है। यह रचना 'जिनेन्द्र काव्य संदोह भाग १ पृष्ठ ५१-७२ और स्नात्र पूजा स्तवन संग्रह के पृ० ३५-५२ पर प्रकाशित है । ३१५
प्रति के अंत में लिखा है
संवत् १८१४ ना वर्षे पोस वदि सप्तम दिने रविवारे लिखित, पं० श्री उत्तमविजय गणि शिष्य पं० रत्नविजये ने लिखायित।
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तपागच्छीय माणेकविजय इनके गुरु थे। इन्होंने सं० १८२५ के वसंत में सिद्धचक्र स्तवन अथवा नवपद स्तवन की रचना की।
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