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रुपचन्द शिष्य थे। देसाई जी ने इनकी कुछ रचनाओं के विवरण-उद्धरण भी दिए हैं। उनके आधार पर कुछ रचनाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है
श्रीपाल चौ० सं० १८५६, फाल्गुन कृष्ण सप्तमी, रविवार, मकसूदाबाद (मुर्शिदाबाद) अजीमगंज। आदि- प्रथम नमुं गुरु चरण कू पायो ग्यान अंकूर,
जसु प्रसाद उपगार थी, सुख पावै भरपूर। इसमें महावीर श्रेणिक को उपदेश देते हुए कहते हैं
वीर जिणंद कहे सुण श्रेणिक, अचरज तूं मन जाणे जी,
नवपद महिमा अधिकी कहिये, तो संदेह किम आणे जी। रचनाकाल और गुरु परंपरा से संबंधित पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
इम श्रीपाल चरित्र गुण गाया, श्रोता मनहि सुहाया जी, संवत अठारह छपन कहवाया फागुण मास सवाया जी। कृष्ण सप्तमी अति सुखकारी, सुणतां आनंद कारी जी, लोकागच्छ गुर्जर गुणपूरा, चौरासी गछ माहे सूराजी। x x x x x x x कृष्ण मुनि तसु सीस सुहाया, ऊणिम ज्ञान सवाया जी, बंग देश देशा मां सवाया, मकसुदाबाद सहर सुखदाया जी। अजीमगंज चौमासा कीना, गंगा निकट मन भीना जी।
लोकागच्छ तिहां पोसाल चीना, जिम मुंदड़ी माँहि नगीना जी।
धर्म परीक्षा रास १८६० माग शुद ५ शनि अजीमगंज पंचंन्द्री चौपाई (१३ ढाल सं० १८७३ वैशाख शुक्ल ८, रविवार, मकसूदाबाद) आदि- श्री जिनवदन निवासिनी, बंदू सारद माय,
कविजन कू सांनिधि करे, कविता पूरण थाय। रचनाकाल- संवत अठारा तिहत्तर कहिये, शुक्ल वैशाख जु लहिये रे।
सूर्यवार आठमः तिथि सहिये, विजय जोग शुभ पइयें रे। इस रचना में कवि ने बंगाल में फिरंगी राज्य की स्थापना के बाद अमनचैन की सराहना की है, यथा
राज फिरंग तणौ तिहां चीनो अमन चैन सुखलीनो रे।"
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