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रुपविजय (गणि) - विमलमंत्री रास
संवत चंद्र रितु गज चंद्रे, श्री जिनराज पसायो; राजनगर चौमासो रहीनें, रास ओ रम्य निपायो रे। कार्तिक बदी सातिम भ्रगुवारे, भाषा छंदे लखायो,
जे नर भणस्यें गुणस्यें तेहने, थास्ये सुख सहायो रे। यह उल्लेखनीय है कि रुपविजय और उनके जैसे नाना जैन लेखक इसी भाषा शैली को 'भाषा' कहते थे। यह दूर-दूर तक के जैन लेखकों की सर्व स्वीकृत भाषा शैली थी। वे किसी प्रादेशिक विभाषा जैसे गुर्जर, मरु, ढूढाड़ी आदि शब्दों का प्रयोग नहीं करते थे।
पद्मविजय निर्वाण रास (सं० १८६२, वैशाख शुक्ल ३, पाटण) आदि- शारद विधुवदनी सदा, प्रणमुं सारद पांय,
रस वचन रस पामिये, जमतां जड़ता जाय।
कवि ने यह रास अपने गुरु के निर्वाणोपरांत लिखा था। रचनाकाल- गुरुराज गाया सुजस पाया, दुख गमाया दूर अं;
नयन ऋतु गज चंद परसे, पामी आनंद पूर ओ।
यह रास जैन ऐतिहासिक रासमाला भाग १ में प्रकाशित हैं। अष्ट प्रकारी पूजा (सं० १८७९) अपेक्षाकृत छोटी रचना है। बीस स्थानक पूजा (२१ ढाल, सं० १८८३ भाद्र शुक्ल ११)
यह कृति विविध पूजा संग्रह और स्नात्र पूजा संग्रह में छपी है। आपकी प्राय: अधिकतर रचनायें जैसे पिस्तालीस आगम पूजा (१८८५ आसो शुक्ल ३, शनिवार)
और पंचज्ञान की पूजा (सं० १८८७ नेमि कल्याणक दिवसे), पंच कल्याणक पूजा (१८८९, माह शुक्ल १५, पालीताणा) आदि जो पूजा संबंधी हैं वे विविध पूजा संग्रह
और स्नात्र पूजा संग्रह में छपी हैं। विमलमंत्री रास
ऐतिहासिक महत्त्व की कृति है। यह शताव्दी के अंतिम वर्ष अर्थात् सं० १९०० आषाढ़ शुक्ल १३, रविवार की रचना है। रचनाकाल निम्न पंक्तियों में कवि ने लिखा है
संवत नभ-नभ नंद चंद, मित वरसे आषाढ़ मासे,
सुदि तेरस रविवारे रचना, रासनि कीधी उल्लासे रे। इसमें 'नंद' शब्द नौ नंदो की तरफ ऐतिहासिक संकेत है।
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