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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ५९ ढाल, सं० १८१० महा शुक्ल २, मंगलवार, वाव्यबंदर) है।
प्रथम धराधव जगधणी, प्रथम श्रमण पणिह। प्रथम तिर्थंकर जग जयो, प्रथम गुरु पभणेह। विश्व स्थिति कारक प्रथम, कारक विश्व उद्योत,
धारक अतिशय आदि जिन, तारक भवनिधि पोत।
इसके मंगलाचरण में नेमि, शारदा आदि की वंदना की गई है। यह रास हरिबल की कथा के माध्यम से पुण्य का प्रभाव दर्शित करने के लिए लिखा गया है, यथा
ते गुरु चरण नमी करी, भवियण ने हितकार, रास रचुं हरिबल तणो, पुण्य ऊपर अधिकार। जीव दया थकी पामीओ, हरिबल मछी राय,
तास संबंध सुणतां थका, सधला पातिक जाय।
यह रास लाटपल्लीपुर वासी पंडित नरसिंह धन जी के आग्रह पर लब्धिविजय ने लिखा था। इस रास मे ऊपर दी गई गुरु परंपरा का उल्लेख कवि ने किया है। रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
शीलाग रथ संवत्सर दशके १८१०, महा सुदि बीज भृगुवारे रे, हरिल ना गुण जीव दया पर, गाया में अकतारे रे। वाव्य बंदर श्री अजित प्रसादें, रही सीमाणा वासे रे,
राणा श्री गजसिंह ने राज्ये, रास रच्यो में उल्लासे रे। अंत- चउविह संघ ने मंगल हो जो, दिन-दिन लच्छिमें भलज्जे रे,
हरिबल नी परे संपद लहेजो, लब्धि नी वाचा फल जे रे।
यह रचना १८४५ में प्रकाशित हुई। इनकी एक अन्य रचना 'जंबू स्वामि सलौको' का उल्लेख श्री देसाई ने किया है किन्तु उसका अन्य विवरण या उद्धरण नहीं दिया है।३४५ लालचंद । -
ये खरतरगच्छ में जिनचंद्र सूरि की परंपरा में क्षमासमुद्र, भावकीर्ति, रत्नकुशल के शिष्य थे। इनका दीक्षा नाम लावण्यकमल था। इनकी तीन रचनाओं का उल्लेख श्री अगरचंद नाहटा ने किया है; (१) दशत्रिक स्तवन १८३३, श्रीपाल रास १८३७ और ऋषभदेव स्तवन १८३९। श्रीपाल रास (४७ ढाल, सं० १८३७ आषाढ़ शुक्ल २,
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