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राजेन्द्रविजय - रामचन्द्र ॥ लिखी हुई है। रामचन्द्र | -
आपकी एक रचना 'दश प्रत्याख्यान स्तव'३२६ सं० १८३१ का उल्लेख देसाई ने जै०गु०क० के प्रथम संस्करण में किया है किन्तु अन्य विवरण या उद्धरण इत्यादि नहीं दिया है। रामचन्द || -
लोकाशा > रुप > जीवराज > वरसिंग संतानीय बालंच> लखमीचंद के शिष्य थे। इनकी रचना 'तेजसाररास (१०९ ढाल, सं० १८६० भाद्र शुक्ल ५, नौतनपुर-नवानगर) का प्रारंभ इस प्रकार है
स्वस्ति श्री चंद गुरु प्रते, प्रेमे करीय प्रणाम,
बुद्धि वृद्धि हुं कीई, जेह थी पाम्यों परम सुधाम। इसमें प्रतिमापूजन का विरोध किया गया है, उदाहरणार्थ ये पंक्तियाँ देखें
जिन पडिमा ने पूजे, आश्रव लागें अनेक, कमला प्रभाचार्य भमियों ते भव अछेक। अम जाणीने लोंके दया धर्म दीयायो,
गुजराते लोंका गिरवो ते गछपति पायो।
इसमें लोंकाशाह द्वारा लोंकागच्छ की स्थापना से लेकर ऊपर वर्णित सभी गुरुजनों का ससम्मान वंदन किया गया है अंत में लखमीचन्द के संबंध में कवि ने लिखा है
लखमीचंद गुरु गिरवा, सुबुद्धि तण रे दातार,
विप्र श्री गोहण ज्ञाती, क्षमा तणां रे भंडार।
यह रचना मूलत: करमसी भूधराणी की कृति पर आधारित है। रचनाकाल- तेह भिछामि दुक्कड़ होज्यो ते श्री संघ साखे,
नौतनपुर में वंचासी, संवत अठार सो साठे। भादरवा सुद पाँच स्वात सति सिद्धि जोग;
भवि भणसे ने गणसे, तेहनी होय ते काया निरोग। अंत- तेह गुरु तणी कृपा थी शिष्य रामचन्द्र रंगे करी,
भवि भणसे गुणसे जेह सुणसे, ते तो रिधि सिधि वंछित वरे।३२७
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