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रत्नविमल - राजरत्न
आदि
रचनाकाल— संवत अठार बरस गुण चालीसे राजनगर चौमासे जी, श्री जिनचंद सूरि गुरु राजे, तेहनी आज्ञा काजे जी ।
है।
आदि
सकल सिंद्ध अरिहंत ने प्रणमुं परमानंद, सांनिध करि श्रुतदेवता, वचन अमृत अरवृंद ।
रचनाकाल
अंत—
आवश्यक नी वृत्ति अनुसारे, ऋषिमंडल पिण देखी जी, ते अनुसारे मे पिण भाख्यो, सूत्र मांहे गुण पेखी जी ।
इससे विदित होता है कि इस रचना का आधार स्रोत आवश्यक और ऋषिमंडल
तेजसार चौ० (सं० १८३९, प्रथम ज्येष्ट कृष्ण १०, मंगल, बावड़ी )
प्रणमुं चरन जिणेसर, सिंध लक्षणे सुखकार, सासननायक उपदेस्यों, मोक्ष तणो ओ द्वार ।
१८१
संवत अणर वरस गुण चालै, ज्येष्ठ प्रथम गुण मासै जी वदि दसमी ने मंगलवारे बावड़ी पुर मुनि मासे जी।
मोक्ष गामीना गुण गावतां भावना सुभ भावता जी, कर्म खपाने नाम जयंता, समरणा ध्यान धरंता जी । जेनर भणसी गुणसी भावे मधुर स्वरे जे गावे जी, अनिचल पदवी तेही ज पावे, रिह समृद्धि घर आवे जी । ३१९
सनत्कुमार प्रबंध चतुष्पदी (सं० १८२३ भद्र शुक्ल २, रविवार, जयपुर)
यह रचना नाहटा जी द्वारा बताई रचनाओं से पूर्व रचित है। इसका उल्लेख नाहटा जी ने नहीं किया था। उन्होंने इलापुत्र रास का नामोल्लेख किया था, पर देसाई जी ने उसको छोड़ दिया है। सनत्कुमार चौ० में वही गुरु परंपरा दी गई है जो पहले वर्णित तीन रचनाओं में उल्लिखित है अतः यह निश्चित है कि प्रस्तुत रचना के कर्त्ता वही रत्नविमल हैं जो प्रथम तीन के कर्ता हैं। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
राजरत्न
जइपुर नगर अनोयम विराजइ सिंध अधिक तिहां छाजइ जी, महिमा धर्म तजी अति दीये, दिन दिन अरियणा जीपई जी । ३२० राजकरण (देखे पृ० १५२ पर, पहले उन्हें छापे तब राजरत्न को देखें)
आप तपागच्छीय आचार्य उदयरत्न > उत्तमरत्न > जिनरत्न > क्षमारत्न के
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