________________
१६९
माणिक्य सागर - मानविजय ||
दर्भावति मंडन दूह विहंडन, सांभल लोटण पास, शील भेद समकित गुण वर्षे, सुद तेरस सीत मास। श्री विजय जिनेन्द्र सूरिश्वर राजे, दर्भावति रही चौमास,
शा हेमा सुत माधव वचने, रसवेल रची सुविलास।२९५ अर्थात् यह रचना 'दर्भावती' में शा हेमा के पुत्र माधव के आग्रह पर रची गई
थी।
मानविजय |
तपागच्छीय रत्नविजय आप के गुरु थे। आपने सं० १८४० फाल्गुन शुक्ल १३ को सिद्धाचल तीर्थ माला' की रचना की। इसका अन्य विवरण-उद्धरण उपलब्ध नहीं हो सका।२९६ मानविजय ॥ -
तपा० विजयराज सूरि; दानविजय; वृद्धिविजय; कपूरविजय के शिष्य थे। आपकी दो रचनाओं का उल्लेख मिलता है प्रथम 'गजसिंह कुमार रास' (४ उल्लास ६४ ढाल सं० १८४३ फाल्गुन शुक्ल २ पिंडपुर विजय लक्ष्मी सूरि राजये) का आदि
श्री जिन चौबीसे नमुं, विहरमान वलि बीस;
प्रेम धरीने प्रणमतां, पुहचे सयल जगीस।
इसमें पंच परमेष्ठी की वंदना के पश्चात् कश्मीर की विख्यात सारदादेवी की वंदना है। तत्पश्चात् मरुदेशस्थ अज्झारी देवी की भी प्रार्थना की गई है। यह कृति शील के महत्त्व के दृष्टांत स्वरुप गजसिंह कुमार का शीलवान चरित्र पाठको के सम्मुख प्रस्तुत करती है, यथा
शीलोपरि जे वर्णवं गजसिंह कुमार चरित्र;
उत्तमनां गुण गावतां होवे जनम पवित्र।
गुरुपरंपरान्तर्गत ऊपर दिए गये गुरु जनो की कवि ने वंदना की है। रचनाकाल- संवत राम वाण घृति वर्षे, मुझ मति ने अनुसारी जी;
____फागुण सित द्वितीया ने दिवसे, रास रच्यो से वारी जी।
यह रचना कवि ने अपने शिष्य प्रताप के लिए की थी। आपकी दूसरी रचना 'मानतुंग मानवती रास' का मात्र नामोल्लेख मिलता है। रचना से संबंधित अन्य विवरण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org