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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एवं उद्धरण आदि उपलब्ध नहीं होते हैं।२९७ माल
लोकागच्छ के खूबचंद संतानीय नाथा जी इनके गुरु थे। इन्होंने कई रचनायें की है; उनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय-उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है
आषाढ़ भूति चोढालियु अथवा संञ्झाय (सं० १८१० आषाढ़ शुक्ल २, भुज) आदि- वाणी अमृत सारखी आपो सरस्वती माय;
निज गुरु चरण नमी करी, गांसू महामुनिराय। लोभे करी माया रची, ते आषाढ़ो जाण,
पडीने चडीयो ते वली, जो गुरु मानी आण। रचनाकाल- संवत् नभ (अ) वनी गज मही रे, आषाढ़ सुद बीज सार।
भुजनगर मां भाव सु रे, रचिओ अ अधिकार, रे प्राणी। यह रचना गच्छपति श्री माणेकचंद के शासन में रचित है, यथा
गछपती श्री माणेकचंद जी रे, लोकागच्छ सिरदार,
पुज नाथा जी पसाय थी रे, माल मुनी हितकार, रे प्राणी।
यह रचना जैन स्वाध्याय मंगलमाला भाग-२, पृ०-३१३ और रत्नसार भाग२ , पृ०-३७७ पर प्रकाशित है।
राजमती संञ्झाय (१७ कड़ी सं० १८२२ कार्तिक शुक्ल १५, मुद्रा); आदि- गोरव में सखीयो संघात, राजुल निरखे हे। अंत– अठार बातीसे नरंदा कार्तिक पूनम हे, गाई रे ऊलट धरी जी।
श्री लोकागच्छ मनुहार, मुनरा विदह माहे, श्रावक आग्रह करी जी।
अलाची कुमार छढालियुं (१८५५ ज्येष्ठ, अंजार) आदि- मात मया करो सरसती, आपो अविरल वाण,
निज गुरु चरण नमुं सदा, आणंद हित चित आण।
इस रचना में भाव का महत्त्व दर्शाने के लिए अलाची कुमार की कथा का दृष्टांत प्रस्तुत किया गया है। रचनाकाल निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत है
संवत् अठार पंचावने जी, जेठ मास सुखसार,
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