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रचनाकाल
अंत
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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इम सयल सुखकर दुरित भयहर पास जी संखेसरो । निधि अधि वसु ससी मान वरषे गाइयो अलवेसरो । अह प्रतिष्ठाकल्प तवन सांभली जो सद्वहे।
रिद्धि वृद्धि सिद्धि सधले सदा रंगविजय लहे ।
यह रचना 'जैन सत्य प्रकाश' में प्रकाशित है।
पार्श्वनाथ विवाहलो (१८ ढाल, सं० १८६० आसो सुद १३ भरुच )
पास प्रभु विवाहलो, भणस्ये सुणस्ये जेह रे,
टलस्ये विरह दुख तेहना, इंछित लहस्ये तेह रे ।
संवत् अठार ने साठ नी, धनतेरस दिन खास रे । भृगुपुर चौमासी रही, कीधो अ अभ्यास रे ।
यह पार्श्वनाथ जी नो विवाहलो तथा दिवाली कल्प स्तव में प्रकाशित है। 'सदयवच्छ सावलिंगा नो रास' का केवल नामोल्लेख मिला है, कोई विवरण और उद्धरण नहीं प्राप्त हुआ। देसाई ने जै० गु० कवियों के प्रथम संस्करण में पहले 'शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रतिष्ठा कल्प स्तव' का रचनाकाल सं० १७७९ बताया था। इसके आधार पर इन्हें १८वीं सदी का कवि माना था, परन्तु बाद में सुधार कर सं० १८४९ किया और रंगविजय को १९वीं शती का कवि स्वीकार किया जो कई प्रमाणों के आधार पर उचित प्रतीत होता है । ३०८
एक अन्य रंगविजय इनके कुछ बाद में हुए जिन्होंने सं० १९९१ में 'पं० वीरविजय निर्वाण रास' लिखा है । वीरविजय का समय सं० १८३० से १९०८ तक निश्चित है। इसलिए इस रास का यह रचनाकाल समीचीन है। इस प्रकार दूसरे रंगविजय बीसवीं शती के कवि ठहरते है अतः इनका विवरण वहीं देना उचित होगा। वह रचना जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है।
रघुपति
ये खरतरगच्छीय विद्यानिधान के शिष्य थे। आप अच्छे कवि थे। आपका समय १७८७ से १८३९ तक है अर्थात् ये १८वीं और १९वीं शती के संधिकाल
रचनाकार है । अत: पूर्व योजनानुसार इनका संक्षिप्त परिचय यहाँ भी दिया जा रहा है। आपकी भाषा मरुप्रधान मरुगुर्जर ( पुरानी हिन्दी ) है। आपकी दो रचनाओं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है, एक 'जैनसार बावनी' और दूसरी भोजन विधि। दूसरी रचना में भगवान महावीर के जन्मसमय के देशाटन का वर्णन किया गया
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