________________
१६६
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास परमारथ पद नो धणी रे प्रभू आतमनो आधार।
इन बड़ी कृतियों के अलावा कई छोटी-छोटी रचनायें भी आपने की हैं जैसे विनय स्वाध्याय (९कड़ी सं० १८०९, चौमासा, पालणपुर);
आत्मशिक्षा स्वाध्याय (१५ कड़ी, सं० १८१५ बड़ोदरा);
और ‘पर्युषण पर्व स्वाध्याय' इत्यादि। इनमें से प्रथम का रचनाकाल इन पंक्तियों में दृष्टव्य है
निधिनव वसु शशि वर्ष में रे, श्री गुरु सुगुण चौमास;
पदपंकज प्रणमि करि रे, कहे महानंद उल्लास रे।'
दूसरे स्वाध्याय के आदि और अंत की पंक्तियाँ निम्नवत् हैं, आदि- हां रे जागो आंतमग्यानी, असी शीख सुगुर चित मांनीरे। अंत- वदपद्र नयर सदा सुखकारि, जिहां संघ सकल धर्मधारी रे;
अष्टादशपनर मन भाया, इम महानंद मुनी गुण गाया रे। तीसरी रचना के भी आदि अंत की पंक्तियाँ प्रतुत हैं
श्री गौतम गुणधामी, पूछे श्रेणिक पद सिर नांमी रे। अंत- अष्टादस ऊपर संवत उगणपचास,
श्री पूजा सोमचंद जी, सूरतनगर चौमास।
अर्थात् 'पर्युषण स्वाध्याय' की रचना सं० १८४९ में सूरत में चौमासे के समय १० कड़ी में पूर्ण हुई थी।
इन्होंने गद्य में कल्पसूत्र पर टब्बा सं० १८३४ में लिखा था। इसका कलश संस्कृत में है। अंत की पंक्तियाँ मरुगुर्जर गद्य के नमूने के रूप में दी जा रही हैं
“इहां चोमासु रह्याते साधु मंगलीक नै अर्थे कल्पसूत्र सरिखं श्री पर्युषणा नामै कल्प अध्ययन ते पाँच अथवा आठ दिन मांहै बांचै तिहां कलप ते साधु नो आचार, ते दस प्रकारे जाणवो।"२९१
इस प्रकार मह देखते हैं किये गद्य ओर पद्य दोनों विधाओं में रचना करने में सक्षम एवं उत्तम रचनाकार थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org