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भूधरमिश्र - मकन नी नववाड़' (सं० १८४० श्रावण शुक्ल ९, गुरुवार, आणंदपुर) का आदि
श्री सरस्वती समरूं सदा, पभणु सुगुरु पसाय, सवचन आपो सारदा, मेहर करी मुझ माय। वाणी वीर जिणंद की, सांभली सास्त्र मझार।
वाड नव कही सियल नी, सुणजो सहु नरनार। गुरुपरम्परा- श्री विजय धर्म सूरी तणो, राजविजे उवझाय जी,
सांचो श्रावक तेह तणो, प्रणमी गुरु ने पाय जी। वाड करी सीयल व्रत तणी, मीठा अमिय समाणी जी,
सीखामण सहु को भली, कहे मकन मुख वाणी जी। रचना स्थान एवं समय- आणंदपुर में रची, संवत् ते सोह अठारे जी,
चीत चोख चालीस मां, श्रावण सुद गुरुवारे जी। अंत- नववाड नो नोमे करी, सामंली सास्त्रे सोय जी,
अधिक ओछे को मात्रा मे, मिच्छामी दुक्कड़ होय जी।
यह रचना 'जैन सञ्झाय माला भाग १ (बालाभाई) और जैन संञ्झाय संग्रह (ज्ञान प्रसारक सभा) के अलावा ‘बह्मचर्य' नामक पुस्तक के पृ० १४५ पर भी छपी है।
बारमास (सं० १८४८ फाल्गुन शुक्ल १०, राणपुर) आदि- सरसति ने चरणो नमुं सद्गुरु ने आधार,
सत्यवचन यौ सारदा, भावै भणुं बारमास। चैत्यमास का वर्णन- चइत रे चित चोखु करी, धरो पास नुं ध्यान,
धन्य पाम्या पुन्य कीजिए, म करीश मन अभिमान। अंत
श्री विजयधर्म सूरि पाटवी, विजय जिणंद सूरिराय, सांचो श्रावक तेहनो, पभणे सुगुरु पसाय। युक्ति श्री जिनवर सेव जो भाव थी भक्ति करेंह,
मकन कहे सुणो मानवी, धर जो धर्म शुं नेह। रचनाकाल- अड़ताला मां राणपुरे, संवत ते सो पै अठार,
गुण गाया मास फागुणे, सुकल दसमी तेणी पार।२७३ यह रचना 'जैन प्रभाकर स्तवनावली (भीमसी माणक) पृ० ५५८ पर प्रकाशित हैं।
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