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फकीरचंद - फतेन्द्रसागर
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पैसा लेकर बूढ़ों के हाथ कुमारी बेचारी कन्याओं की विक्री के अन्याय पूर्ण हिंसा के विरुद्ध सच्ची दया भावना से प्रेरित यह रचना जैन साहित्य के विरल उदाहरणों में एक है।
अंत
बेटी थारा मथारा मोडो तोनें इन बिन किसडी ढोडो, इण सुहागण पणसुं धाइ, सामाइक करिस्यूं सदाई। नव तत्त्व सदा मन धरसु, तपस्याने पोसो करसुं। घट सारु दान जे देसुं, मनमान्यो कारज करस्युं ।
रचनाकाल — संवत् अठार छत्तीस आंण, मिगसर वलि मांस बखाण । चंद फकीर अ बखाणी, सुणज्यो कलजुंग नीसाणी । २४६
पहले यह रचना अज्ञात नाम से छपी थी। लेकिन इस पंक्ति में स्पष्ट चंद फकीर अर्थात फकीरचंद नाम दिया गया है। अतः यह इन्ही की कृति है ।
फत्तेचंद
आपने सं० १८१९ में 'प्रीतिधर नृप चौपई' की रचना की। इस रचना और इसके रचनाकार के संबंध में कोई ज्ञानकारी नहीं मिल सकी । २४७
फतेन्द्रसागर
तपागच्छीय विनीतसागर और उनके पॉच शिष्यों धीरसागर,. भोजसागर, सूरसागर, रतनसागर और जयवंतसागर में से ये धीरसागर के शिष्य थे। इन्होंने 'अष्टप्रकारी पूजा रास' का सं० १८५० भाद्र कृष्ण अष्टमी - कृष्ण जन्माष्टमी को बगड़ी में प्रारंभ किया और उसी वर्ष बेनातट में पूर्ण किया ।
आदि
श्री आदि जिणंद पदांवुजे, मन मधुकर सम लीन, नो आगमगुण सौरम्यभर, आदरि करि लयलीन । जिनवर सम छै अधिक, तारै भवजल पार, आप तर्था पर तारवा, शक्ति अछै जस सार ।
X X X X X X विजयचंद चरित्र मां पूजा नो अधिकार, कुणकुण पूजा थी तर्था उत्तरीयो भवपार ।
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