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रचनाकाल— संवत् अठारा ओ पीण जाण,
बीस तीस नै आठै जाण ।
अंत
इण धरा ऊपर राजवी हुवा छे केई अनेक, सतधारी हरचंद छे कविजन कीधी जोड़ |
इसमें लोकागच्छीय केशव और नरसिंह का सादर वंदन किया गया है।
उस समय उस प्रदेश में भीमसेन राजा का शासन था क्योंकि कवि ने लिखा निरमल बुध कीयो प्रवेश, मारु मरुधर मंडल देस, भीमसेन राजा भूपाल सुपनंतर पिण न पड़ै दुकाल ।
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
तिथ्य नवमी मृगसिर वद तेह, रुडो वार सूरज रो अह । पूरो ग्रंथ कियो तिण दीन, सतवादी ने कह जो धन्न । पुण्यवंत नर कहिये तेह, सतसंग तसु लागो नेह सतसूरा ते सूरा होय, जग में नाम तियारा होय ।
देसाई ने जै० गु० क० के प्रथम संकरण में उसके कर्त्ता का नाम केशव > नरसिंह शिष्य प्रेम ही बताया गया है। इसके अलावा वैदर्भी चौ० का भी इन्हें ही कर्ता कहा गया है परंतु उक्त चौपाइ प्रेममुनि की नहीं बल्कि किसी प्रेमराज की रचना है जो १८वीं शती के कवि थे और जिनके संबंध में इस ग्रंथ के तृतीय भाग पृ० ३०५ पर चर्चा की जा चुकी है । २४५
फकीरचंद
आपने लीक से हट कर एक सामाजिक कुरीति पर रचना की है जिसका नाम है 'बूढ़ा रास'। इसमें वृद्ध विवाह के पुष्परिणाम का रोचक वर्णन तो है ही, साथ ही समाज की इस कुरीति पर सुधारवादी दृष्टि से एक जैन मुनि के विचार बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। संभवतः यह कवि भी लोकागच्छ का ही है । विवरण देखे
बूढ़ा रास अथवा चौपाई - हिन्दी राजस्थानी भाषा में यह १४ ढ़ालो में रचित मनोरंजक रचना सं० १८३६ मागसर में लिखी गई थी।
आदि
दया ज माता वीनऊं, गणधर लागू पांय, वर्धमान चौबीस मां, बांदू सीस नमाय। कन्या जे जमी तणों, पइसो न लीजै कोय। बूढ़ा ने परणावतां, गुण बुढारा जोय।
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