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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सुभाषित नीति प्रकरणों के दो सौ दोहे कवि की स्वानुभूति और व्यवहारिक ज्ञान के जीवंत उदाहरण है यथा
पर उपदेश करन निपन ते तो लखे अनेक,
करै समिक बौले समिक ते हजार में एक। ये दोहे रहीम, वृन्द आदि श्रेष्ठ हिन्दी कवियों के टक्कर के है यथा
करि संचित कोरो रहै, मूरख विलसि न खाय,
माखी करमीजत रहे, शहद भील लै जाय। वृंद का यह दोहा देखिये
खाय न खरचै सूम धन चोर सवै लै जाय,
पीछे ज्यों मधुमक्षिका, हाथ मलै पछताय। विराग भावना का एक नमूना देखिए
को है सुत को है तिया, काको धन परिवार, आके मिले सराय में, विछुरेगें निरधार। परी रहैगी संपदा, धरी रहैगी काय,
छल-बल करि काहु न वचै, काल झपट लै जाय।२५४
यह सतसई प्रकाशित है। इसका रचना काल १८७९ ज्येष्ठ कृष्ण ८ जै० कासलीवाल ने बताया है।२५५ बुधजन विलास सं० १८९१ कार्तिक शुक्ल २ की रचना है।२५६
इनके पाँच भाई थे। इनके गुरु पं० भागीलाल थे। ये दीवान अमरचंद के मुनीम थे। इनकी १४ रचनाओं का उल्लेख अगरचंद नाहटा ने किया है।२५७ ।।
बुधजन सतसई और विलास के अलावा तत्वार्थबोध, भक्तामर स्तोत्रोत्पत्ति कथा, संबोध अक्षर बावनी, योगसार भाषा, पंचकल्याणक पूजा, मृत्युमहोत्सव छहढ़ाल, ईष्टछत्तीसी, वर्द्धमान पुराण सूचनिका, दर्शन पच्चीसी और बारह भावना पूजन। इन्होंने अनेक भावपूर्ण भक्ति रसात्मक पदों की रचना भी की है। वे पदसंग्रह में संकलित हैं। इन सभी रचनाओं में बुधजन सतसई की इतनी अधिक प्रतियाँ प्राप्त हो चुकी हैं कि उनके आधार पर उसकी लोकप्रियता स्वतः सिद्ध है। इनकी रचनाओं की भाषा पर मारवाड़ी भाषा का प्रभाव अधिक मिलता है।
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