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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बीजापुर पासे आछे गाम गेरीतो जेहनो नाम जी,
नेमनाथ सामी सुपसाईं रह्या चोमासो ते ठाय जी। अंत- "रंगविजय रंगीला जग में गुण गाऊं हूं एहना जी,
पस्तालीसमी ढाल ओ भाखी नेमविजय रसाल जी।
दान, शील, तप, भावना पर भी अपने कई संञ्झाय लिखे है।२३४ पन्नालाल
ये जयपुर निवासी थे। इनके समय जयपुर में माधवसिंह का शासन था। इन्होंने जयपुर के प्रसिद्ध सेठ चाँदमल के सुपुत्र फूलचंद के आग्रह पर 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार का हिन्दी पद्यानुवाद किया। यह रचना मूलतः समंतभद्र की रचना 'रत्नकरण श्रावकाचार' का पद्यानुवाद है। इसकी हस्तप्रति दिल्ली के सेठ कुंचा के मंदिर से प्राप्त हुई और प्रति में रचनाकाल सं० १७७० दिया हुआ हैं इसलिए यह १८वीं शती की रचना हो सकती है। कामता प्रसाद जैन ने इसका उल्लेख १९ वीं शती में किया है। यह विचारणीय प्रश्न है।२३५ पद्म भगत
पद्म भगत की रचना 'कृष्ण रूक्मिणी मंगल' है। इसके अंत में रचनाकाल इस प्रकार दिया गया है
___“संवत् १८७० का साके १७३५ का भाद्रपद मासे शुक्ल पक्षे पंचभ्यां चित्रा भौम नक्षत्रे द्वितीय चरणे तुला लग्नेय समाप्तोयं।" प्रारम्भ "श्री गणेशाय नमः श्री गुरुभ्यो नमः अथ रूक्मिणी मंगल लिख्यते।" इससे लगता है कि पदम भगत जैनेतर लेखक है। इसमें तीर्थंकरों आदि की वंदना भी नहीं है; यथा
गुरु गोविंद के सरने आये हो जो कुल की लाज सब पेली कृष्ण कृपा तै काम हमारो भणता पदम यो तेली। शायद ये तेली विरादर के भगत रहे हों। इसका अंत इस प्रकार हैश्री कृष्ण को व्याहलो, सुणो सकल चित लाय,
हरि पुरवै सब कामना, भगति मुकति फलदाय।२३६ पद्मविजय
ये तपागच्छ के सत्यविजय > कपूरविजय > क्षमाविजय > जिनविजय >
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