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पंक्तियों से स्पष्ट है—
महिमा श्री जिन चैत्य की श्री जिन तें अधिकाइ, चंपाराम दीवान कूं सतगुरु दई दिखाई। में भाषा में कहत हौ, मन में ठानि विवेक, ज्ञानी समझै ज्ञानतैं सगमय देषि अनेक | श्री जिन करैं विहार नित भव जल तारण हेत, पीछे भविक जनन कूं, विरह महा दुष देत श्री जिन बिंब प्रभाव जुत, वसे जिनालय नित्त; विरह रहित सेवक सदा सेवा करें सुचित्त । बिन बोले खोलै हिए श्री जिनेन्द्र को ध्यान, करै पुष्टता धर्म की सोधै सम्यक् ज्ञान। बिन अकार ते ध्यान किमि करै भव्य मन लाइ सिद्धन हूं ते अधिकता बिंब सु देत दिखाई । " १०५
इसकी प्रति जैन सिद्धांत भवन आरा में सुरक्षित है।
आपकी दूसरी रचना 'धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार भाषा सं० १८६९ में श्रावकों के आचार का वर्णन किया गया है । १०६
चंद्रसागर
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य एवं भट्टा० सकल कीर्ति के शिष्य थे। आपने सं० १८२३ में 'श्रीपाल चरित' की रचना सोजत में की। इसके अंत में काष्ठासंघ के रामसेन आम्नाय के भ० विद्याभूषण, चन्द्र कीर्ति और सुरेन्द्र कीर्ति आदि गुरुओं की वंदना विस्तारपूर्वक त्रोटक चाल आदि विविध छंदो में की गई है।
आदि
चाल
" सकल शिरोमणि जिननमूं तीर्थंकर चौबीस, पंचकल्याणक जेहलह्या पाम्या शिवपद ईस । वृषभसेन आदेकरि गौतम अंतिम स्वामि, चउदसे बावन ऊपरि सद् गुरु परिणाम।
(न) व्या वेह पद कमल सोहामणुं मधुकर समते जाणि, ब्रह्म चंद्रसागर कहे बाल ख्याल मन आणि ।
व्याकर्ण तर्क पुराणन तेन्ही जाणूं भेद,
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