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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नामक इनके दो अधूरे ग्रंथों में से प्रथम को दौलतराम कासलीवाल ने पूरा किया है और दूसरा अधूरा ही छप गया है।
__ आप मूलत: सरल और स्वच्छ गद्य भाषा के लेखक थे, परन्तु ग्रंथो के प्रारम्भ में दिए गये पद्यों को देखने से ये अच्छे कवि भी प्रतीत होते हैं। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय को दौलतराम ने १८२७ में पूर्ण किया था, इससे स्पष्ट होता है कि इससे कुछ पूर्व अर्थात् १८२५-२६ में इनका देहावसान हो गया होगा। मुलतान के पंचों के नाम आपकी एक चिट्ठी प्रकाशित हैं, उसकी भूमिका से ज्ञात होता है कि दरबारी विद्वत् परिषद् के द्वेष
का कुछ दुष्परिणाम भी इन्हें भुगतना पड़ा था। शायद दीवान अमरचंद ने इन्हें जयपुर रियासत में कोई सम्माननीय पद दिलाया था। उस पद पर रहते हुए आपने राज्य और प्रजा के हित का कार्य किया। आप संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के अलावा कनड़ के भी अच्छे जानकार थे।१६७ इनकी हिन्दी भाषा पर ढूढारी का कुछ प्रभाव परिलक्षित होता है। वैसे भाषा स्वच्छ और प्रवाहपूर्ण है : एक उदाहरण
गोत्र कर्म के उदय तैं नीच ऊंच कुल विषै उपजै है। तहाँ ऊंच कुल विषै उपजै आपको ऊंचा माने है अर नीच कुल विषै उपजै आपको नीचा मान हैं। सो कुल पलटने का उपाय तो याकू भासै नही। तातें जैसा कुल पाया वैसा ही कुल विषै आप माने हैं।
सो कुल अपेक्षा आपकौं ऊंचा नीचा मानना भ्रम है।१६८ इस ग्रंथ की शैली आकर्षक है। सूत्र शैली में गूढ़ विषयों की व्यंजता की दृष्टि से निम्नांकित पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं यथा
तातें बहुत कहा कहिए, जैसे रागादि मिटावने का जानना होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बहुरि जैसे रागादि मिटे सो ही
आचरण सम्यक् चरित्र है, ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।१६९
नाहटा जी का मत है कि टोडरमल की मृत्यु ४७ वर्ष की वय में हुई पर कोई प्रमाण नहीं दिया है। इनकी अधिकतर रचनायें अनुवाद या टीका हैं परन्तु टीकाकार होते हुए भी इन्होंने गद्यशैली का निर्माण किया। डॉ० प्रेम प्रकाश गौतम ने अपने शोध प्रबंध 'हिन्दी गद्य का विकास' में इन्हें गद्य का निर्माता बताया है। इनकी शैली दृष्टांतयुक्त, प्रश्नोत्तरमयी और सुगम प्रसादगुण सम्पन्न है। उसमें शास्त्रीय पंडिताऊपन का बोझ नहीं है बल्कि बीच-बीच में व्यक्तित्व का प्रक्षेप होने से मौलिक लेखन का स्वाद मिलता है। क्षपणासार भाषा के मूल लेखक नेमिचंद थे, यह जैनसिद्धांत का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है
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