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दीपविजय
श्रीपतिविजय गुरु का नाम स्मरण इन पंक्तियों में हैकाल अनादे हे तीरथ ओ थटो सा०, करी अखीयायत जूगादीराय; श्रीपतिविजय गिरीगुण गावतां सा०, आतमज्ञान दीप प्रगटाय। रा० लेकिन नमिजिन स्तवन की इन पंक्तियों में गुरु का नाम कृष्णविजय है। यथा
ऋद्धि वृद्धि बहु में लही, गुरु कृष्णविजय सुपसोये रे,
दीप सेवके विनती कही। 'चौबीस महावीर स्तवन की अंतिम पंक्तियाँ निम्नवत है
जगत गुरु वीर परम उपगारी, निरुपाधिक दान दांतारी; पंचमगति दायक स्वामी दीपे विबुध अंतरजामी,
शिवनारी हृदय विसरामी। 'सामायक ३२ दोष संझाय' का प्रारंभ
श्री जिन सारद सदगुरु प्रणमी भाऱ्या सामायिक दोष जी। अंत- श्रीपतिविजय सेवक इम दीपे, सामायक गुण गाय रे।
इसमें श्रीपतिविजय को गुरु कहा है। जै० गु० कवियों के संस्करणों में श्रीपति का अर्थ कृष्ण लिया गया है और गुरु नाम कृष्णविजय बताया गया है।१९५
कृष्णविजयशिष्य के नाम से एक रचना 'मृग सुंदरी महात्म्य' गर्भित छंद (५६ कड़ी, सं० १८८५ फाल्गुन शुक्ल, पालणपुर) का विवरण मो० द० दे० ने जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में दिया था और यह संभावना व्यक्त की थी, यह कृष्णविजय शिष्य दीपविजय ही होंगे किन्तु जै० गु० क० के नवीन संस्करण में दीपविजय की रचनाओं के साथ इस रचना का उल्लेख नही है अत: यह शंका स्वाभाविक है कि शायद यह कृष्णविजय शिष्य कोई अन्य व्यक्ति हो। इसका रचनाकाल निम्नांकित पंक्तियों में दिया गया है
अठार पचासिय फागुण मास, श्वेतभुवन तिथि भाखी खास; पालणपुर मां कियो अभ्यास, वामा सुत मन पूरी आस। प्रेमे सेवो दया अकतार, लहो जस कांति रूप अपार। कहे कवि कृष्णविजय नो शिष्य, जयणा धमो निसदीस।
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