________________
देवविजय - देवहर्ष
१२३ देवहर्ष
ये खरतरगच्छ की कीर्तिरत्न सूरि शाखा के प्रसिद्ध आचार्य जिनहर्ष सूरि के सूरित्व काल में रचनाशील थे। इन्होंने दो ग़जले बनाई हैं-पाटण ग़जल और डीसा नी ग़जल, जिनका विवरण आगे दिया जा रहा है। पाटण ग़जल (१३३ कड़ी, सं० १८७२ से पूर्व)। आदि- सरस वचन द्यो सरसती, पामी सुगुरु पसाय;
विधन व्याधि भवभयहरण, विमल ज्ञान वरदाय। परमबध परगट कवी अर्णव जिम गंभीर,
मेरी बुध तिम मंद है ज्युं छीलर सर नीर।
जैसा प्रथम खण्ड में मरुगुर्जर शब्द की व्याख्या करते समय कहा गया था कि मरुगुर्जर भाषा राजस्थानी गुजराती और हिन्दी के मिलेजुले रूप की एक शैली है जिसका प्रयोग जैन साधु और कवि अपनी रचनाओं में अपभ्रंश के बाद से करते आये है। यह शैली रूढ़ हो गई और राजस्थानी, गुजराती हिन्दी का स्पष्ट विकास होने पर भी कुछ परिवर्तित रूप में प्रयुक्त होती रही किन्तु १९वीं शती तक आते-आते खड़ी बोली हिन्दी का प्रभाव पड़ोसी विभाषाओं-भाषाओं पर पड़ने लगा था। इसलिए इस ग़जल में यत्र-तत्र खड़ी बोली के शब्द संज्ञा, क्रिया आदि का स्पष्ट प्रयोग दिखाई पड़ता है। ग़जल उर्दू से आई काव्य-विधा है इसलिए भी इस पर खड़ी बोली का प्रभाव स्वाभाविक है क्योंकि उर्द भी खड़ी बोली की एक शैली है। ऊपर उद्धत पंक्तियों में प्रयुक्त शब्द 'मेरी है' आदि उदाहरणार्थ देखे जा सकते है
"खरी धरा नवखंड मैं, सत्तर सहस्स गुजरात;
संखलपुर राणीस्वरी, मोटी बेचर मात।" गुरु का उल्लेख इन पंक्तियों में है
खरतरगच्छ सिरताज, श्री जिनहर्ष सूरि गुरु राजे, सेवे पवन छत्ती गच्छ संघला सिर गाजे।। पाटण जस कीधो प्रगट, जिहां पंचासर त्रिभुवन धणी;
कवि देवहर्ष मुख की रटे, कुशलरंग लीला धणी। अंत- गाइ ग़जल गुन माला क,
खोल्या सुजस का ताल्या का यह ग़जल भोगीलाल सांडेसरा द्वारा संपादित 'फास गुजराती सभा त्रैमासिक'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org