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दीपविजय
११७ सं० १८७७ मागसर वद २) का । आदि- श्री गुरु प्रेम प्रताप थे, उगति उपाइ अवल्ल;
वर- सूरत सेहरे की, अभिनव खूब गज्जल। कलस- वंदिर सूरत सेहरे, ता वरनन इह कीनो;
सब सहेरां सिरताज, सूरत सहेर नगीनो। तीको सूरत सेहेर, लख कोसां लग चावो; देखन की जरा हौंस सो देखन पे आवो। श्री गछपति महराज कुं, चित्रलेख लिखते लीऊ;
दीपविजय कविराज ने इह सूरत सेहेर वरनन किऊँ।
यह जैन युग पु० ४ अंक ३-४ पृ० १४३-१४६ पर प्रकाशित है। इन्होंने खंभात की ग़जल (१०३ कड़ी सं० १८७७ से पूर्व);
जंबूसर की ग़जल (८५ कड़ी १८७७ से पूर्व); ।
उदेपुर की ग़जल (१२७ कड़ी सं० १८७७ से पूर्व), की भी रचना की है। इस प्रकार इन्होंने ग़जल का प्रयोग विविध नगरों के वर्णन में करके जैन साहित्य में एक नवीन विधा का प्रयोग किया है। पार्श्वनाथ ना पांच वधावा (गर्भित स्तवन) सं० १८७८ में पार्श्वनाथ के पंच कल्याणकों का वर्णन तथा उनके जन्मस्थान बनारस का भी वर्णन किया है। इन्होंने 'कावी तीर्थ वर्णन (३ ढाल सं० १८८६) नामक रचना में एक अन्य प्रमुख जैन तीर्थ का वर्णन करके अनेक स्थानों का भौगोलिक, ऐतिहासिक और सामाजिक परिचय दिया है। इसका रचनाकाल निम्न पंक्तियों में है
संवत् अठार से है छियासीयें, वि० गाया तीरथराज, गु०
ऋषभ, धरम जिनराज जी वि०, दीपविजय कविराज; गु०।
यह प्राचीन तीर्थ संञ्झाय पृ० १७१-१७२ और जैन सत्य प्रकाश पु० ५ अंक ११ पृ० ३९२ पर प्रकाशित है। अडसठ आगम नी अष्ट प्रकारी पूजा (सं० १८८६ जंबूसर) में तपागच्छ विजयानंद सूरि, समुद्र सूरि और धनेश्वर सूरि की वंदना की गई है। रचना का आधार भगवती सूत्र है। रचनाकाल- संघ आग्रह थी आगमपूजा, कीधी अष्ट प्रकारी रे,
संवत् अठार सें हे छयासी वरसे (१८८६) आगम नी बलिहारी रे। नंदीश्वर महोत्सव पूजा (सं० १८८९ सूरत और अष्टापद पूजा सं० १८९२
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