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थोभण - दर्शनसागर सुद १३, रविवार सूरत) का आदि इस प्रकार है
स्वस्ति श्री शोभा सुमतिदायक श्री भगवान, वंदू गोड़ी पास जिन, केवलज्ञान निधान। अंचलगच्छे अधिपति उदयसागर सूरिंद,
पद पंकज ते गुरुतणा, पण/ प्ररमाणंद। इसमें दान का महत्त्व दर्शाया गया है, यथा
सदगुरु ना सुपसाय थी, दान तणे अधिकार,
आदिनाथ जिनवर तणो, रास रचुं सुविचार।
यह रचना हेमाचार्य कृत आदिनाथ चरित्र, आचार्य विनयचंद कृत आदिनाथ चरित्र और उपदेश चिंतामणि वृत्ति आदि ग्रंथों का आधार लेकर रची गई है। पुस्तक छह खण्डों में विभक्त है। छठे खण्ड से संबंधित पंक्तियाँ आगे उद्धत की जा रही हैं
छट्टे खंडे पांत्रीसमी ढाल, कही श्रीकार तो, उवझाय-दर्शन ।
इसमें सुविहित, सोहम, सुस्थित, वैरस्वामी आदि पूर्वाचार्यों का वर्णन करते हुए कवि ने वैरी शाखा, संश्वेसर गच्छ विधिपक्ष, अंचलगच्छ आदि का स्थापना क्रमवार बताया है। इसलिए सांप्रदायिक दृष्टि से इसका ऐतिहासिक महत्त्व है। विधिपक्ष के आर्य रक्षित की परम्परा में जयसिंह से लेकर कल्याणसागर, अमरसागर, विद्यासागर और उदयसागर आदि गुरुजनों की वंदना की गई है। रचनाकाल इस प्रकार है
संवत् वेद नयन गज, वसधा (१८२४) सुदि तेरस महामास;
रविवारें प्रीतिजोग मां सुंदर, पूरण कीधो ओ रास रे।
इस कृति में कवि ने सूरत के शाह खुसालचंद, निहालचंद, मोहनदास, भूषणदास, जलालशाह और सकलचंद आदि का उल्लेख करके पुस्तक रचना के संबंध में लिखा है
आगम गच्छे श्री सिंहरतन सूरि, तस शिष्य श्री हेमचंद,
तेह तणे वली संघ आग्रह थी, ओ रास रच्यो सुखकंद रे। अंत- छठे ढाल छत्रीसमी, आचार्य गुण समान,
सुणतां भणतां पातिक नासे, मंगल लहे प्रधान रे। भले में अ जिन शासन पायो।१८८
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