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ज्ञानसागर - झूमकलाल
१०५ पहुँचा जहाँ सुगाल साह के पुत्र भाग निधि, अभय और मूलासाह के कथनानुसार यह बालावबोध लिखा। उन लोगों की आगम में रुचि थी, इसकी अंतिम पंक्ति इस प्रकार है
दुर्लभ चारो अंग में समकित जेह अमूल;
भविजन तस उद्यम करो जिम शिवसुख अनुकूल।१६१
इसके उद्धृत अंश में रचनाकाल नहीं है अन्यथा सटीक अनुमान करने में अधिक सुविधा होती। ज्ञानानंद
आप खरतरगच्छ के साधु चारित्रनंदी के शिष्य थे। इनका ७५ पदों का एक संग्रह ज्ञान विलास और ३७ पदों का दूसरा संग्रह ‘समयतरंग' शीर्षक से मरुगुर्जर में उपलब्ध है।
अगरचंद नाहटा ने 'जैन सत्य प्रकाश पु० ४ अंक १२ पृ० ५७३ पर एक लेख इनके संबंध में लिखा है जिसमें पर्याप्त सूचनायें हैं। मोहनलाल दलीचंद देसाई ने भी 'जैन' पु० ३८ अंक ३५ के पृ० ८४५ पर इनसे संबंधित जानकारी दी है। इनके दोनों संकलन भीमशी माणेक द्वारा प्रकाशित है, वीरचंद दीपचंद ने भी श्रीमद् यशोविजयादि संञ्झाय पद स्तवन संग्रह सं० १९५७ में प्रकाशित किया है।१६२ झूमकलाल
ये शायद जिला एटा के सराय अधत नामक स्थान के निवासी थे। इन्होंने अपना निवासस्थान 'अधात जगा' बताया है। इनके पिता का नाम कुशलचंद था। किसी कारण वश ये सकूराबाद (शिकोहाबाद) पहुँचे और वहाँ के एक धर्मात्मा सेठ अतिसुखराय के सम्पर्क में आये। उन्हीं के आग्रह पर इन्होंने ख्यालो के सादृश्य में नेमनाथ जी के कवित्त की रचना सं० १८४३ में की। इसका एक उदाहरण देखें
"नेमिनाथ को हाथ पकरि कै खड़ी भईं भावज सारी, ओडै चीर तीर सरवर के तहाँ खड़ी हैं जदुनारी। x x x x x x काहे को सार श्रृंगार करै, सुन तेरो पिया गिरनार गयौ री,
मूर्छित 8 धरनी पै गिरी, मनु वज्र छटाका आनि परयो री। एक बार अतिसुख राय ने झूमकलाल से कहा
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