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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की प्रमुख साध्वी रंभा जी से दीक्षा ली। सं० १९७२ में इनका स्वर्गवास हुआ। इसलिए इनका रचनाकाल बीसवी शताब्दी है। यद्यपि ये अधिक पढी लिखी नहीं थी पर कविता का इन्हें स्वाभाविक गुण प्राप्त था। इनकी रचनाओं का एक संकलन जैन स्तवनावली जयपुर से प्रकाशित है। उसमें स्तवन, कथा उपदेश आदि संकलित हैं। सुमति कुमति चौढालिया, अनाथी मुनि री सतढालियों, जंबू स्वामी की सतढालियों आदि आपकी रचनायें है जिनका विवरण देना २०वीं शती में उपर्युक्त होगा। चूंकि इनका जन्म १९वीं शती में हो गया था इसलिए उल्लेख कर दिया गया है।११७ जयकर्ण
इन्होंने सं० १८१२ में 'चौबीस जिन स्तवन' की रचना सारसा में की।११८ जयचंद
ये खरतरगच्छीय कपूरचंद के शिष्य थे। इन्होंने 'प्रतिमारास' नामक एक प्रतिमापूजन संबंधी रचना सं० १८७८ में ३ ढालों में आगोढाई में लिखी। इनकी एक अन्य रचना 'संवेगी मुखपटाचर्चा, मुखपत्ती पर आधारित शुद्ध सांप्रदायिक है। प्रतिमारास सं० १८७८ भाद्र कृष्ण २ आगोढाई में लिखित का उदाहरण नहीं मिला यद्यपि इसका उल्लेख नाहटा और देसाई दोनों ने किया है।११९ जयचंद छावड़ा- श्री नाथूराम प्रेमी इन्हें १९वीं शताब्दि के लेखकों में द्वितीय स्थान का अधिकारी विद्वान् बताते है।१२° आप जयपुर निवासी छावड़ा गोत्रीय खंडेलवाल वैश्य थे। इनके ग्रंथों की लंबी सूची प्रेमी जी के कथन को पुष्ट करती है। इन्होंने अधिकतर वचनिकाये लिखी हैं। सर्वार्थ सिद्धि १८६१, परीक्षा मुख (नाट्यशास्त्र) १८६३, द्रव्यसंग्रह १८६३, स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा १८६६, आत्मख्याति समयसार १८६४, देवागम न्याय १८८६, अष्टपाहुड़ १८६७, ज्ञानार्णव १८६९, भक्तामर चरित्र वच० १८७०, . सामायिक पाठ वच०, चन्द्रप्रभ काव्य द्वितीय सर्ग का न्याय माग, मत समुच्चय (न्याय), पत्र परीक्षा (न्याय)। ये सभी वचनिकाये संस्कृत और प्राकृत के कठिन ग्रंथों की हैं। इनमें से पाँच तो न्याय विषयक हैं।१२१ अन्य तत्त्वचिंतन संबंधी ग्रंथों की वचनिकायें हैं। केवल भक्तामर चरित्र कथा ग्रंथ है जिसका विवरण उदाहरण आगे दिया जा रहा है। भक्तामर स्तोत्र भाषा १८७० कार्तिक कृष्ण १२ का। आदि- "अमर मुकुट मणि उद्योत, दुरित हरण जिन चरणह ज्योत।
नमहु त्रिविध युग आदि अपार, भव जल निधि परु तह आधार।"
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