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जिनहर्षसूरि - जिनेन्द्रभूषण या १८५८ हो सकता है क्योंकि चन्द्र बराबर १ और विधिनयन बराबर आठ तो निश्चित है। रचना स्थान भी अजीमगंज और बालूचर दोनों दिया है। इसलिए इसका एकदम सही रचनाकाल और रचना स्थान अतसाक्ष्य और प्राप्त उद्धरण के आधार पर निश्चित करना नामुमकिन है। कलश- ओ बीस थानक भुवनवंदन अघ निकंदन जानीये,
बिवुधेन्द्र चन्द्र नरेन्द्र वंदि, पद जिनेन्द्र बषाणिये। ओ बीस पद भवजलधि तारण, तरण गुण पहिचानिये,
इम जान भविजन कुशल कारण बीस पदं उर आनीये। अंत- गणधार श्री जिनहर्ष सूरी हर्ष धरी धन अघ हरी,
या बीस पद की विविध पूजन विधि तणी रचना करी।१४१ जिनेन्द्रभूषण
आप दिगंबर भट्टा० सुरेन्द्रभूषण के शिष्य थे। आपने 'चन्द्र प्रभ पुराण भाषा' की रचना सं० १८४१, इटावा में की। इसके आदि और अंत और अन्य संबंधित पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैंआदि- चिदानंद भगवान सब शिव सुख के दातार,
श्री चंद्रप्रभ नाम है, तिन पुराण सुखसार। अंतिम पंक्तियों में गुरुपरम्परा विस्तार से दी गई है यथा--
मूलसंघ है मै सरस्वति गच्छज्यूं, बलात्कारगण को महाराज परतच्छ ज्यूं। आमनाय कहै बीच कुंद-कुंद ज्यू,
कुंद-कुंद मुनिराज ज्ञानवर आपज्यूं। भट्टारक गुनकार जयतभूषण भये----इत्यादि। आगे विश्वभूषण, देवेन्द्र भूषण और सुरेन्द्र भूषण की वंदना है, यथा
तिनके पद उद्धार देवेन्द्र भूषण कहे, सुरेन्द्रभूषण मुनिराज भट्टारक पद कहे। जिनेन्द्रभूषण लघु शिष्य बुद्धिवर हीन ज्यूं, कह्यों पुराण सुज्ञान पूरण पद जान ज्यूं।
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