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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनाकाल और स्थान
संवत ठारासै इकतालीस साभले, सावन मास पवित्र पाप भक्तिको गलैं। सुदि है द्वैज पुनीत चन्द्र रविवार हैं, पुरण पुन्य पुराण महासुखदाई है। शहर इटावौ भलो तहां बैठक भई, श्रावक गुन संजुक्त बुद्धि पूरन लई।"
इसकी भाषा शैली और रचनावन्ध का उदाहरण देने के लिए एक छंद और प्रस्तुत है
सब रितु के फल ले आया, तिन भेंट करी सुखदायी, राजा सुनि मनि हरलावै तव आनंद भेरि बजावै। सब नगर नारि नर आये, वंदन चाले सुख पाये,
चन्द्री सब परिजन लेई, जिनवर चरनन चित देई।१४२ प्रति के अंत में लिखा है
इति श्री हर्षसागरस्याबज भट्टारक जिनेन्द्रभूषण विरचित
चन्द्रप्रभ पुराणे चन्द्रप्रभु स्वामी निर्वाण गमनो नाम षष्टम् सर्गः। जिनोदयसूरि
आप खरतरगच्छीय जिनतिलक सूरि के शिष्य थे। आपने 'चतुरखण्ड चौपाई' की रचना की है जिसमें हंसराज वच्छराज की कथा का पद्यबद्ध वर्णन है। गुरू परंपरा से संबंधित पंक्तियाँ
तसु पार्दै महिमानिलो रे, श्री जिनतिलक सूरि पसाय मोटा-मोटा भूपति रे, प्रण में तेहना पाय। एह प्रबंध सुहामणो रे, कहै श्री जिनोदय सूरि,
भणौं गुणौ श्रवणें सुणौ रे, तस घर आनंद पूरि। इसकी प्रारंभिक पंक्तियां इस प्रकार है
आदीश्वर आदै करी चौबीसो जिणचंद, सरसति मन समरौं सदा श्री जयतिलक सुरिंद। पुन्ये उत्तम कुल हुवै, पुन्ये रूप प्रधान, पुन्यें पूरो आउषो, पुन्ये बुद्धि निधान।
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