________________
4
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जिन सौभाग्य सूरि
खरतरगच्छ के आचार्य और कवि, आपने ‘समेत शिखर स्तव, सं० १८९५ माघ कृष्ण १३ और नवपद स्तव, सं० १८९५ आषाढ़ शुक्ल १५, बालूचर तथा १४ पूर्व स्तव, सं० १८९६ बालूचर में लिखा। इन रचनाओं के उद्धरण नहीं मिल पाये।१४० जिनहर्षसूरि
आप खरतरगच्छ के जिनचंद्र सूरि के पट्टधर थे। आपको सूरिपद सं० १८५६ में मिला था; इन्होंने विंशति स्थानक पूजा सं० १८७८ (५८१) (भाद्र शुक्ल ५, रवि, अजीमगंज, बालूचर में) पूर्ण की। रचना का आदि
सुख संपति दायक सदा, जगनायक जिनचंद। विघन हरण मंगलकरण, नमो नाभि नृपचंद।। लोकालोक प्रकाशिका जिनवाणी चित्तधार,
विंशति पद पूजन तणो, कहिस्यु विधि विस्तार।
इसमें विंशति पद पूजन की विधि का वर्णन किया गया है, पद पूजा का महत्त्व बताते हुए सूरि जी कहते हैं
जिनवर अंगे भाखिया, जप तप बहु प्रकार; विंशति पद तप सारिखां, अवर न कोई उदार। दान शील तप जप क्रिया, भाव बिना फलहीन,
जैसे भोजन लवण बिन, नहीं सरस गुणपीन,
गुरुपरम्परा का वर्णन करते हुए कवि ने जिनलाभ सूरि और जिनचंद्र सूरि का वंदन किया है। रचनाकाल संबंधित पंक्तियाँ आगे उद्धृत की जा रही है
इह वरस चन्द्र दिने (पेन्द्र) हरि (२१) मुख विधिनयन स्थिति मितिधरू, तिहमास भाद्रव धवल दस तिथ पंचमी रविवासरू। बंगाल जनपद जिहां विराजत शिखर तीरथ गिरिवरू,
सहु नगर सोभित अजीमगंज पुर दुतीय बालूचर पुरूं।
यह रचनाकाल भ्रामक है। यह रचना जिनहर्ष सूरि की है अर्थात् रचना सूरिपद प्रतिष्ठा सं० १८५६ के बाद की है। हरिमुख का अर्थ सात और हरमुख का अर्थ पाँच समझने के कारण बीस वर्ष का अंतर आ जाता है अर्थात् १८७८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org