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चंद्रसागर - चारित्रनंदन
त्रोटक—
चाल -
मुझ मति अल्प ज्युं कहत हुं, -कवि गुण अगम अभेद ।
श्रीपाल गुण ते अति घणा मुझमति अल्प अपार, कविता जन हौसि न कीजै, तुम्हें गुण तणी भंडार । सोजन्या नयर सोहामणु दीसे ते मनोहार, सासन देवी ने देहरे परतापुरे अपार । सकलकीर्ति तिहां राजता छाजता गुण भंडार, ब्रह्म चंद्रसागर रचना रची, तिहां कवी मनोहार ।
ग्रंथ संख्या तुम्हें जाणज्यो पंचदस शत् प्रमाण, तेह ऊपर बलि शोभता साठ वत्तीस ते जाणि । ढाल वत्रीस ते सोभती मोहनी भवियण लोक, सांभलता सुख ऊपजै नासै विधन और सोक ।
रचनाकाल - संवत् शत अष्टादश त्रयविंशति अवधार, तेह दिवसा पूरण भयो, अ ग्रंथ शुभसार । माघ मास सोहामणो धवल पख मनोहार, त्रीज तिथि अति सोभनी शुभ तिथि रविवार । १०७
रचना के अंत में लिखा है " इति श्री श्रीपाल चरित्रे भट्टारक श्री सकलकीर्ति तत् शिष्य श्री ब्रह्म चन्द्रसागर विरचित श्रीपाल चरित। "
आपकी एक अन्य रचना 'पंच परमेष्टी स्तुति' का भी उल्लेख मिलता है। चारित्रनंदन
आप खरतरगच्छीय जिनचंद्र के शिष्य थे। ये जिनचंद्र जिनलाभ के शिष्य थे। इनका एक गीत ऐ० जैन काव्य संग्रह में 'जिनलाभ सूरि पट्टधर जिनचंद्र सूरि गीत' शीर्षक के अन्तर्गत जिनचन्द्र की वंदना में लिखित प्राप्त है जिसका रचनाकाल सं० १८५० वैशाख कृष्ण अष्टमी है। रचनाकाल से संबंधित पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैं
“बरस अठारह पचास में जी राज, वद वैशाख मझार, चरित्रनंदन वीनवै जी राज, आठम तिथि गुरुवार ।
जिनचंद की वंदना में कवि कहता है
"जिनचंद सूरि गुरुवंदियै जी राज, वंदियै वंदियै वंदिये जी- राज; सहु गच्छपति सिर सेहरो जी राज, खरतरगच्छ सिणगार । '१०८
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