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चारित्रनंदी - चेतनविजय
"गरब ने कीजै प्राणियां, तन धन जोबन पाय, आखिर ये चिर नां रहै, थित पूरे सब जाय। गाढै रहिये धरम मैं, करम न आवै कोय, अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय। गिर पर चढ़ते जाय कै, जिहा तीरथ तिहां जांहि, तेरो प्रभु तुझ पास है, पै तुझ सूझत नाहि। गेह छोड़ बन में गये सरै न एको काम,
आसा तिसना ना मिटी, कैसे मिलिहैं रामा'१११
ये पंक्तियाँ कबीर की बानियों का स्मरण दिलाती है। जोहो, कवि पर निर्गुण पंथी संत साहित्य का पर्याप्त प्रभाव स्पष्ट है, यह भी अनिश्चित है कि कवि जैन है या जैनेतर। चेतनविजय
आप तपागच्छीय आचार्य विजयजिनेन्द्र सूरि के प्रशिष्य और ऋद्धिविजय के शिष्य थे। आपकी सीता चौपाई, जंबू स्वामी चरित और श्रीपाल रास नामक तीन रचनाओं के विवरण मिले है जिनका संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। जंबू स्वामी चरित (सं० १८५२ श्रावण शुक्ल ३, रविवार, अजीमगंज)। आदि- "जंबू सुनो साध आचारु, जे निग्रंथ होय अणगार।
ते चौबीस बोल मन धरे, जीव-जीव जगते भव तरे।"
गुरुपरम्परा का उल्लेख करके कवि ने ऋद्धिविजय को अपना गुरु बताकर वंदन किया है। रचनाकाल और रचनास्थान संबंधी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
“संवत् अठारे बावने श्रावण को हे मास, शुक्ल तीन रविवार को, पूरौ ग्रंथ विलास बंगदेश गंगा निकट गंज अजीम पवित्र,
श्री चिंतामणि पास को, देवल रचा विचित्र।" इसका रचनाकाल जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में १८०५ भ्रमवश देसाई जी ने लिख दिया था। पाठभेद और अर्थ भ्रम के कारण ऐसा संभव हआ होगा। इनकी अन्य दो कृतियाँ भी प्राप्त है जिनके रचनाकाल की संगति में विचार करने पर इसका रचनाकाल सं० १८५२ ही उचित प्रतीत होता है। आपकी पहिली रचना 'सीता र्चापाई' का रचनाकाल सं० १८५१ वैशाख शुक्ल १३ अजीमगंज है और तीसरी का रचनाकाल
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