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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
जैन गुर्जर कवियों के नवीन संस्करण में ढूढ़ने पर न कल्याणसागर शिष्य का पता चला न उदयसागर ही मिले; इसलिए कर्त्ता का निश्चय नहीं हो पाया।
कवियण
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आपकी रचना 'देवविलास या देवचंद्र जी महाराज नो रास' सं० १८८५ आसो सुद ८ रविवार को रची गई। आपने इस रचना में खरतरगच्छ के आचार्य जिनदत्त, जिनकुशल, जिनचंद्र, पुण्यप्रधान, साधुरंग, राजसागर, ज्ञानधर्म, दीपचंद और देवचंद की वंदना की है। इसलिए कवि खरतरगच्छ के साधु देवचंद या रामचंद का शिष्य रहा होगा। कवियण नाम से एक गीत ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में कविवर जिनहर्ष गीतम शीर्षक के अन्तर्गत दूसरे गीत के रूप में छपा है। संभवतः यही कवियण देवविलास के भी रचयिता हैं और कवियण किसी का नाम नहीं बल्कि किसी अज्ञात कवि का प्रतीक है । जिनहर्ष गीत में संकलित कवियण रचित गीत की अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
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"धन जिनहरष नाम सुहागणु धन-धन से मुनिराय, नाम सुहावइ निस्पृह साधु नुं, कवीयण इम गुण गाय । ”
ये जिनहर्ष कविवर जिनहर्ष से भिन्न है । ये बोहरा गोत्रीय तिलोकचंद की पत्नी तारा देवी की कुक्षि से पैदा हुए थे। आपके बीकानेर पधारने पर महिमाहंस ने उस उत्सव का एक गहूली में वर्णन किया है, वह गहूली यथास्थान दी जायेगी ।
‘देवविलास' या देवचन्द रास एक विस्तृत रचना है। इससे ज्ञात होता है कि देवचंद बीकानेर के निकट स्थित एक मनोरम ग्राम के निवासी लूणिया साह तुलसीदास और उनकी पत्नी धनबाई के सुपुत्र थे। माता धनबाई ने गर्भवस्था में ही बालक को राजसागर जी को देने का वचन दिया था। सं० १७४६ में यह बालक पैदा हुआ। सं० १७५६ में राजसागर ने उन्हें दीक्षा दी, बाद में जिनचन्द्र जी ने विधिवत् बड़ी दीक्षा दी और नाम राजविमल रखा। आप जैनागमों के पारंगत पंडित हुए और 'आगमसार' नामक ग्रंथ की रचना की। १७७७ में भगवती सूत्र पर अहमदाबाद में प्रवचन किया और अनेक ढूढ़कों को स्वमतानुयायी बनाया। शिष्यों से शत्रुंजय का सुंदरीकरण कराया और सं० १८१२ में कचराशाह के संघ में वहाँ की यात्रा की। सं० १८१२ में आपका राजनगर में भाद्रपद अमावस्या के दिन स्वर्गवास हुआ। प्रस्तुत रास उनके योग्य शिष्य के आग्रह पर कवियण ने सं० १८२५ में लिखा। इसकी प्रारंम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
सुकृत प्रेम राजीव ने प्रोल्लासन चिन्हंस, तिम रिदये अक्षता, आदिनाथ अवंतस।
इसमें नेमि - राजुल, पार्श्व, महावीर की वंदना के पश्चात् सरस्वती और मॉ के
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