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कांतिविजय - कृष्णविजय बागड़ प्रदेश के बड़ोछा ग्राम में रचित है), इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ
“पहिलो लीजे सरसती नाम, चोविस जिन ने करूं प्रणाम,
क्रोध मान माया ने लोभ, आखू अर्थ करी थिर थोभ। अंत- "अठार पांत्रीसा वरस मझार, (नागड़देश) बड़ोछा सार,
देवदर्शन गुरु पंडित राय, कांतिविजय हर्षे गुण गाय।'६७ कृष्णदास(जैनेतर)
रचना-कृष्ण रूक्मिणी विवाहलो अथवा रूक्मिणी विवाह' इसकी प्रति सं० १८३० की प्राप्त है इसलिए मूल लेखन इससे कुछ पूर्व हुआ होगा। आदि- “विद्रभ देश कुदंणपुर नगरी, भीषम नृप तहां नव निधि सगणी,
पंचपुत्र जाकइ कन्या रूक्मणी, तीन लोक तरण सिरि हरणी रूक्मिणी की शोभा का वर्णन :
"मिरगराज कटि तटि मृगज लोचन, गिरग अंग वंदन सुदेसही,
कहत कृष्णदास गिरधर उपज्य विद्रभ देस ही। अंत- “रूषमणी जामडं सत्यभामा सदाभद्रा आणी,
लक्षमनि कलही नितविदा, ओ आंठउ पटराणी। दस-दस पुत्र अक-अककन्या, तरणि तरणि वृत दीना, निरावारनिलेय निरजंण, मो माया रस भीना। रूकमणि व्याह कथो कृष्णइ जन, सीष सुणइ अर गावइ,
अर्थ कामना सुगतिफल, च्यारि पदारथ पावइ। ६८
इस कृति को शास्त्री काशीराम करसनजी ने प्रकाशित किया है। कृष्णविजय
इनकी गुरु परम्परा नहीं बताई गई है किन्तु जैन गुजैर कवियों में उल्लिखित कृष्णविजय के शिष्य (अज्ञात) ने अपनी गुरु परम्परान्तर्गत जसविजय, कांतिविजय ओर रूपविजय का उल्लेख किया है इसलिए कृष्ण विजय रूपविजय के शिष्य हो सकते हैं। इनकी एक रचनों 'राजुल बारमास' का उल्लेख १९वीं शती की कृतियों में मो० द० देसाई ने किया है किन्तु अन्य विवरण-उद्धरण आदि कुछ नहीं दिया है।६९ जै० गु० क० के नवीन संस्करण में इनका और इनकी रचना का उल्लेख भी नहीं मिला; इसलिए
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