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शंकास्पद प्रकरण है और छानबीन की अपेक्षा है।
कृष्णविजय के शिष्य
जसविजय, कांतिविजय, रूपविजय, कृष्ण विजय के शिष्य थें इन्होंने ./मृगसुंदरी महात्म्य गर्भित छंद' (५६ कड़ी सं० १८८५ फाल्गुन शुक्ल ३, पालनपुर लिखा है।
आदि
रचनाकाल—
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रणमी वीर जिनेसर पाय, करे प्रीछा गौतम चित लाय, पूज्य जयण चंद्रोदय ठाम, केला कहिये त्रिभोवन स्वामि ।
अंत
मधुर गिरा जंपे अरिहंत, सांभल तेह तणो विरतंत, परी मन जीवदयानुं अंग, बांधे चंद्रोदय दस चंग।
अठार पंचासिया फागण मास, श्वेतभुवन तिथि माखी खास, पालणपुर मां कियो अभ्यास, वामासुत मन पूरी आस । प्रेमे सेवा दया अंकतार, कहो जसकांति रूप अपार ।
कहे कवि कृष्णविजय नो सीस, जयणा धर्म करो निसदीस | "
मो० द० देसाई ने जै० गु० क० में कृष्णविजय के इस अज्ञात शिष्य की पहचान दीपविजय के रूप में की थी, लेकिन कृति में गुरुपरम्परा के पश्चात् दीपविजय का कही उल्लेख न होने से यह निश्चित नहीं है कि यह अज्ञात शिष्य दीपविजय ही है । ७०
कुंवरविजय
आप तपागच्छीय पद्मविजय के प्रशिष्य एवं अमीविजय के शिष्य थे। 'अष्टप्रकारी - पूजा' पद्यात्मक सांप्रदायिक रचना है।
आदि
“त्रिजगनायक तु धणी, महा महोरो महाराज, महोरे पुण्ये पामियो, तुम दरिशंण हूं आज । आज मनोरथ सर्व फल्या, प्रगट्यां पुण्य कल्लोल, पापकरम दूरे टल्यां, नाठां दुःख दंदोल |
जिन उत्तम पद पद्मनी, नित सेवा करो त्रणकाल, निज रूप प्रगटे सुख होवे, अमिकुंवर कहे नहि वार ।”
यह पूजा 'विविध पूजा संग्रह' और स्नात्रपूजा आदि पूजा संग्रहों में संकलित प्रकाशित है। ७१अ
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