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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मुनियों के तप का वर्णन ग्रीष्म ऋतु के व्याज से निम्न पंक्तियों में किया है" ग्रीष्म की ऋतु संतापित जहाँ शिलापीठ, पवन प्रचारु चारि दिशा में न जा. समैं, सूख गयो सरवर नीर और नदीजल, मृगन के यूथ बन दौड़े फिरैं प्यास मै । जलाभास देखियतु दूरितैं सुथल जहाँ, जाम जुग घाम तेज करेऊं आवास में, गुफा तल सलिल सहाय छाड़ि घीर मुनि, गिरि के शिखर योग गाड़ि बैठे ता समैं |”५८ कमलविजय
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तपा० विजयप्रभ सूरि के प्रशिष्य और लाभविजय के शिष्य थे। आपने चंद्रलेखा रास सं० १८२० कार्तिक शुक्ल ५ बीसनगर में लिखा, उसका आदि
रचनाकाल
“सकल सिद्धि कारक सदा, समरुं हूँ शुभकाम, चवीसे जिनवर चरणि, प्रतिदिन करुं प्रणाम । आई प्रसन्न जे ऊपरि भूतल ते भाग्यवंत, कालिदासादिक तणी ऊपम कवि पावंत, देव गुरु धर्म दया सहित, शुद्ध समकित गुणकार, गुरु समीपै अ ऊपरि सरस सुणो-अधिकार । समकित अ सही कहिसुं कथा प्रबंध, चंद्रलेखा सती तणो सुणयो सहु संबंध ।
नयन गगन फुनि इंदु संवत अह सुजाण जी, बहुल मास सौभाग्य पंचमी दिन चौपs चढ़ी प्रमाण जी ।
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इसमें तपागच्छ के आचार्य विजयदेव, विजय प्रभ सूरि और लाभविजय का वंदन किया है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
'श्री विशलनगर विख्यात विशेषै तिहां श्रावक श्राविकाचार जी, देव गुरु धर्म तणा बहु रागी, विनय विवेक विचारि जी । श्री ऋषभदेव वीर प्रभु वंदि, ते पूजे चित चंगे जी,
ति नयर चोमासुं रहि सुखई, अ रास रच्यो मनरंगेजी । '५९
कर्पूरविजय
यह चिदानंद संवेगी साधु थे, पूरे योगी थे। इन्होंने अपना सांप्रदायिक नाम छोड़कर अभेद मार्गी चिदानंद नाम रखा था। आपने अध्यात्म परक पदों की रचना की है। स्वरोदय नामक एक निबंध भी लिखा। इनके एक पद का नमूना प्रस्तुत
है
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