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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आणंदविजय
तपागच्छीय रत्नविजय, रामविजय, उत्तमविजय के शिष्य थे। आपने 'उदायन राजर्षि चौपाई' की रचना (३ खण्ड सं० १८५५ फाल्गुन कृष्ण ११) विजयजिनेन्द्र सूरि के सूरिकाल में किया। इसके आदि की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैंआदि- "श्री जिन पारस शासने, श्री महावीर जिनंद,
नमतां दोऊ जिननवा, वचन रसायण वृंद। गुरुवंदना
गुरु बिन घोर अंधार है, गुरु विण है मति हीण, तिण कारण गुरु वंदना, शुभ अक्षर दीयांवीन। त्रिह संबोधन ओकह रचना ग्रंथह ज्ञान,
ज्ञान उदायन चरित्र को शुभ विधि करूं बषांण।
प्रथम खंड के अंत में ऊपर दी गई गुरु परंपरा का उल्लेख किया गया है। यह रचना मुहता सुरतराम के आग्रह पर की गई। दूसरे खण्ड के अंत में लिखा है
"वारे श्री वर्द्धमान जिनंदने, पट्ट जिनेन्द्रह सूरी रे, राम उत्तम आणंद गण गाया, दिन दिन तेज सवाया रे। को कवि वांचन खोड म काढ़ो, गुण सिवना सिर चाढो रे, रिध सिध अंग सिध धरोधर, वधते सुजस सवाई रे, आनंद जयप्रद लामे सारा, ओ रस ग्रंथ विस्तारा रे, हितधर गायो रास रसाला, फलसी मंगल माला रे।"२२
जैन गुर्जर कवियों के प्रथम संस्करण में रचना का नाम उदायी राजर्सि चौ० लिखा था परन्तु मूल पाठ में 'उदायन' नाम दिया होने से नवीन संस्करण में संपादक . कोठारी ने रचना नाम 'उदायन' ऋषि चौ० कर दिया है। आलमचंद
यह कविवर समयसुंदर एवं विनयचंद की परंपरा में आसकरण के शिष्य थे। अनेक वर्षों तक आप मुर्शिदाबाद में रहे। इसलिए अधिकतर रचनायें वहीं हुईं। मौन एकादशी चौ० सं० १८१४ मुर्शिदाबाद, जीव विचार स्तवन (गाथा ११५) सं. १८१५ मुर्शिदाबाद, त्रैलोक्य२३ प्रतिमा स्वतन् सं० १८१७ और सम्यक्त्व कौमुदी चौ० सं० १८२२ मुर्शिदाबाद। श्री मो० द० देसाई गुरु परंपरान्र्तगत समयसुंदर की परंपरा में
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