Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६७७
दरिदमा प्रकृतिद्वयमं कुर्त्तु संक्रमसहितमागि सप्तकरणंगळवु । शेषप्रकृतिगळं कुरुतु संक्रमणकरणव्युच्छित्ति सूक्ष्मसांपरायनोळेयक्कं अप्युर्दारदमुपशांतकषायनोळु षट्करणमेयक्कु । क्षीणकषायनो करगव्युच्छित्तिशून्यमक्कु । सयोगकेवलियोळ बंधोत्कर्षणापकर्षण उदीरणाकरणचतुष्कव्युच्छित्तिय कुमयोगिकेवलियोळु सत्वोदयकरणद्वय के व्युच्छित्तियक्कु । शेष सुगमं ॥ बंधुक्कड् ढणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि नियमेण । संक्रमणं करणं पुण सगसगजादीण बंधोति ||४४४ ॥
बंधोत्कर्षणकरणे स्वस्वबंधपय्र्यंतं भवतः नियमेन । संक्रमणं करणं पुनः स्वस्वजातीनां
बंधतं ॥
बंधकरणमुत्कर्षणकरण बेरडुं स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपय्यंतमक्कु नियमविदं । संक्रमणकरणं मत्ते स्वस्वजातिगबंधव्युच्छित्तिपर्यंत मक्कु ॥
ओकड्ढणकरणं पुण अजोगिसचाण जोगिचरिमोत्ति । खीणं सुमंताणं खयदे सरसावलीयसमयोति || ४४५॥
अपकर्षणकरणं पुनरयोगिसत्वानां योगिचरमपय्र्यंतं क्षीणसूक्ष्मांतानां क्षयवेशः सावलिकसमयपर्यंतं ॥
बंधकरणमुत्कर्षण करणं च स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपर्यंतं स्यात् नियमेन । संक्रमणकरणं पुनः स्वस्वजातीनां बंधयुच्छित्तिपर्यंतं स्यात् ||४४४ ॥
निवृत्तिकरणे सूक्ष्मसांपराये च शून्यं, उपशांतकषाये मिथ्यात्वमिश्रप्रकृती प्रति सप्त करणानि स्युः, शेषप्रकृतीः १५ प्रति संक्रमणस्य सूक्ष्मसांपराये एव छेदात् षडेव । क्षोणकषाये व्युच्छित्तिः शून्यं, सयोगे बंघोत्कर्षणापकर्षणोदीरणकारणानि, अयोगे सत्त्वोदयौ । शेषं सुगमं ॥ ४४३ ||
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उपशम, निधत्ति, निकाचना इन तीनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। ये तीनों आगे नहीं होते । २० अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्पराय शून्य है अर्थात् इनमें किसी करणकी व्युच्छित्ति नहीं होती । उपशान्त कषाय में मिथ्यात्व और मिश्र प्रकृति में सातों करण होते हैं शेष प्रकृतियों में छह ही करण होते हैं; क्योंकि संक्रमकरणकी व्युच्छित्ति सूक्ष्म साम्पराय में ही हो जाती है । क्षीणकषाय में व्युच्छित्ति शून्य है । सयोगीमें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा करणकी व्युच्छित्ति होती है । तथा अयोगी में सत्व और उदयकी व्युच्छित्ति होती है। शेष कथन २५ सुगम है ||४४३॥
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बन्धकरण और उत्कर्षण करण अपनी-अपनी बन्ध व्युच्छित्ति पर्यन्त ही नियमसे होते हैं । अर्थात् जिस-जिस प्रकृतिकी जहाँ-जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति होती है उस उस प्रकृतिमें वहीं तक बन्ध और उत्कर्षण करण होते हैं । किन्तु संक्रमकरण अपनी-अपनी सजातीय प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति पर्यन्त होता है। जैसे ज्ञानावरणकी पाँचों प्रकृतियाँ सजातीय हैं । ३० इनका संक्रमकरण जहाँ तक इनकी सजातीय प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वहाँ तक होता है ||४४४॥
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