Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन आगम मुमुक्षु की प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देशक होते हैं। उनके अभाव में मुमुक्षु को व्यवहार का निर्देश श्रुत से मिलता है / आगम की विद्यमानता में श्रुत का स्थान गौण होता है। किन्तु उनकी अनुपस्थिति में व्यवहार का मुख्य प्रवर्तक श्रुत बन जाता है।' दशवैकालिक श्रुत है, इसलिए जैन साहित्य में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इस समय आगम-पुरुष कोई नहीं है। जम्बू स्वामी ( वीर निवाण की पहली शताब्दी ) अंतिम केवली थे। अंतिम मनःपर्यायज्ञानी और अवधिज्ञानी कौन हुए, इसका उल्लेख नहीं मिलता। स्थूलभद्र ( वीर निर्वाण की 2-3 शताब्दी ) अंतिम चतुर्दशपूर्वधर थे। वज्र स्वामी ( वीर निर्वाण की छठी शताब्दी ) दश-पूर्वधरों में अंतिम थे। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार अंतिम दश-पूर्वधर धर्मसेन (वीर-निर्वाण की चौथी शताब्दी) थे।२ आगम-पुरुष की अनपस्थिति में इनका स्थान श्रत को मिला। आगम-पुरुषों की अनुपस्थिति में उनकी रचनाओं ( सम्यक्-श्रुत ) को भी आगम कहा जाने लगा। अनुयोगद्वार में द्वादशांगी के लिए आगम शब्द का प्रयोग हुआ है। नंदी में द्वादशांगी के लिए सम्यक्-श्रुत का प्रयोग मिलता है। इस प्रकार उत्तरकाल में सम्यक्-श्रुत और आगम पर्यायवाची बन गए। दशवैकालिक सम्यक्-श्रुत है और साथसाथ आगम-पुरुष की कृति होने के कारण आगम भी है। .. - न्यायशास्त्रों में श्रुत या शब्द-ज्ञान के स्थान में आगम का प्रयोग मुख्य हो गया / न्याय -शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आप्त-वचन से होने वाला अर्थ-संवेदन आगम है।५ उपचार-दृष्टि से आप्त-वचन को भी आगम कहा जाता है / 6 इस न्याय-शास्त्रीय आगम का वही अर्थ है, जो प्राचीन परम्परा में सम्यक्-श्रुत का है। १-भगवती 88 / 339 / २-जयधवला, प्रस्तावना, पृष्ठ 49 / ३-(क) अनुयोगद्वार, सूत्र 702 : से किं तं आगमे ? आगमे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा लोइए य लोउत्तरिए य / (ख) वही, सूत्र 704: से किं तं लोउत्तरिए ? लोउत्तरिए जण्णं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं तिल्लुक्कवहिअ महिअपूइएहिं सव्वण्णू हिं सव्वदरसीहिं पणीअं दुवालसंगं गणिपिडगं / ४-नंदी, सूत्र 42 : से किं तं सम्मसुयं ? सम्मसुयं .... 'दुवालसंगं गणिपिडगं / ५-प्रमाणनयतत्त्वालोक, 4.1 : आप्त-वचनादाविर्भूतमर्थ-संवेदनमागमः / ६-वही, 412 : उपचारादाप्तवचनं च /