Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 2. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 17 भगवान् की दृष्टि में बाह्य-तप की अपेक्षा मानसिक आर्जव अधिक महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने कहा—“कोई तपस्वी नग्न रहता है, शरीर को कृश करता है और एक महीने के बाद भोजन करता है किन्तु मायाचार को नहीं त्यागता, वह अन्त-काल तक संसार से मुक्ति नहीं पाता।" __भगवान् ने चमत्कार-प्रदर्शन और पौद्गलिक सुख की प्राप्ति के उद्देश्य से किए जाने वाले तप का विरोध किया। उनका यह आग्रह था कि तप केवल आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से ही किया जाय / 2 " निन्य का आचार भीम है, अन्यत्र ऐसे परम दुश्चर आचार का प्रतिपादन नहीं है"3—यह जो कहा है, उसके पीछे कठोर चर्या की दृष्टि नहीं है। इसे अहिंसा की सूक्ष्म-दृष्टि से परम दुश्चर कहा है। समूचा छठा अध्ययन इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट करने वाला है। सूत्रकृनांग (1 / 11 / 5) में अहिंसात्मक मार्ग को महाघोर कहा है। गीता में श्रद्धापूर्वक, फल की आकांक्षा से रहित किए गए तप को सात्विक, सत्कार आदि के उद्देश्य और दम्भ से किए गए तप को राजस तथा दूसरे का विनाश करने के लिए अविवेकपूर्ण निश्चय से शरीर को पीड़ा पहुँचाकर किए गए तप को तामस कहा है। .महात्मा गौतम बुद्ध ने काय-क्लेश को अनावश्यक बतलाया। उन्होंने कहा-“साधु को यह दो अतियाँ सेवन नहीं करनी चाहिए। कौनसी दो ? (1) जो यह हीन, ग्राम्य, अनाड़ी मनुष्यों के (योग्य), अनार्य (-सेवित) अनर्थों से युक्त, कामवासनाओं में लिप्त होना है, और ; (2) जो दुःख (-मय), अनार्य (-सेवित) अनर्थों से युक्त आत्म-पीड़ा में लगना है। भिक्षुओ! इन दोनों ही अतियों में न जाकर, तथागत ने मध्यम-मार्ग खोज निकाला है, (जोकि) आँख-देनेवाला, ज्ञान-करानेवाला, शान्ति के लिए, अभिज्ञा के लिए, परिपूर्णज्ञान के लिए और निर्वाण के लिए है।"५ १-सूत्रकृतांग, 112 / 1 / 9 / २-दशवैकालिक, 9 / 4 / सू० 6 / ३-वही, 6 / 4 / - ४-गीता, 1717-19 : श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं नरैः / अफलाकांक्षिभियुक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते // सत्कारमानपूजार्थं . तपो दम्भेन चैव यत् / क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमधू वम् // मूढग्राहेणात्मनो यत् पीडया क्रियते तपः / परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् // ५-विनय-पिटक, पृष्ठ 80-81 /