Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन गौतम ने पूछा- "भगवन् ! (1) महावेदना और महानिर्जरा, (2) महावेदना और अल्पनिर्जरा, (3) अल्पवेदना और महानिर्जरा, (4) अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा-क्या ये विकल्प हो सकते हैं ?" भगवान् ने कहा-'हाँ गौतम ! हो सकते हैं।' 1 यहाँ दो विकल्प-दूसरा और तीसरा ध्यान देने योग्य हैं। भगवान् ने अनशन, काय-क्लेश आदि को बाह्य-ता और स्वाध्याय, ध्यान आदि को आभ्यन्तर-तप कहा है / 2 वे आत्मिक पवित्रता के लिए जैसे आभ्यन्तर-तप को आवश्यक मानते थे, वैसे ही इन्द्रिय और मन को समाहित रखने के लिए बाह्य-तप को भी आवश्यक मानते थे। भगवान् ने छह कारणों से आहार करने की अनुमति दी, वैसे ही छह कारणों से आहार न करने की आज्ञा दी। इस विचारधारा में संयत काय-क्लेश और ध्यान दोनों का समन्वय है, इसलिए यह तप और ध्यान के ऐकान्तिक आग्रह के बीच का मार्ग है-मध्यम मार्ग है।४ भगवान् ने अहिंसा का विवेक किये बिना तप तपने वालों को इहलोक-प्रत्यनीक ( वर्तमान जीवन का शत्रु ) कहा है / १-भगवती, 6 / 1 / २-उत्तराध्ययन, 307,8,30 / ३-वही, 26 // 31-34 : छण्हं अन्नयरागंमि कारणंमि समुट्ठिए / वेयणवेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिन्ताए // निग्गंयो घिइमन्तो निग्गंथी वि न करेज्ज छहिं चेव / ठाणेहिं तु इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ॥ आयके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु। पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेयणट्ठाए ४-दशवकालिक, 8162 : सज्झायसझाणरयस्स ताइणो अपावभावस्स तवे रयस्स / विसुज्झई जं सि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोइणा // ५-भगवती, 88 वृत्ति : इहलोगपडिणीए-इह लोकस्य प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पंचाऽग्नितपस्विवदिह लोकप्रत्यनीकः /