Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 4. चर्यापथ : एषणा 141 मुनि एक बार भोजन करे।' अप्रासुक भोजन न करे / / भोजन में गृद्ध न बने / मुनि मात्रज्ञ-भोजन की मात्रा को जानने वाला हो। इसका तात्पर्य है कि वह प्रकाम-भोजी न हो। औपपातिक सूत्र में मुर्गी के अण्डे जितने बत्तीस कवल के आहार को प्रमाण प्राप्त भोजन कहा गया है। जो इस मात्रा से एक कवल भी कम खाता है, बह प्रकाम-रस-भोजी नहीं होता। भोजन की मात्रा के सम्बन्ध में आयुर्वेद का अभिमत यह है-उदर के चार भाग ( कल्पना) करे-इसमें से दो भाग अन्न से और एक भाग द्रव-पदार्थ से भरे / वात आदि के आश्रय के लिए चतुर्थ भाग को छोड़ देवे (पूरा पेट भर कर के भोजन न करे, भोजन की गति के लिए स्थान रहने देना चाहिए')।५ १-दशवकालिक, 6 / 22 / २-वही, 8 / 23 / ३-वही, 8 / 23 / ४-सू० 19 / ५-अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान, 8 / 46-47 : अन्नेन कुक्षेविंशो पानेनैकं प्रपूरयेत् / आश्रयं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयत् //