Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ ७-स्थिरीकरण जैन-दीक्षा अखण्ड और अविभक्त होती है। उसमें काल का भी व्यवधान नहीं होता। वह आजीवन ग्रहण की जाती है। जीवन के इस दीर्घ-काल में साधनाभाव के आरोह-अवरोह को अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। अवरोह अनादेय अवश्य है, पर मानवीय दुर्बलताओं के कारण वह प्रगट होता है और साधना की तीव्रता से वह मिट जाता है। जब साधना से पलायन करने के भाव उत्पन्न होते हैं तब साधक को किन-किन अवलम्बनों के द्वारा अपनी साधना में स्थैर्यापादन करना चाहिए, उन्हीं का निर्देश यहाँ किया गया है। वे अवलम्ब 18 हैं। साधक को इस प्रकार सोचना चाहिए कि' : . 1. इस कलिकाल में आजीविका चलाना अत्यन्त कष्ट-प्रद है। 2. गृहस्थों के काम-भोग तुच्छ और क्षणभंगुर हैं। 3. सांसारिक मनुष्य माया-प्रधान हैं / 4. मेरा यह दुःख चिरस्थायी नहीं होगा। 5. गृहस्थों को नीच व्यक्तियों का भी सत्कार-सम्मान करना पड़ता है। 6. संयम को छोड़ने का अर्थ है वमन को पीना / 7. संयम को छोड़ गृहस्थ बनने का अर्थ है नारकीय जीवन की स्वीकृति / 8. गार्ह स्थिक झंझटों में धर्म का स्पर्श दुर्लभ है / 6-10. संकल्प और आतंक वध के लिए होता है / 11. गृहवास क्लेश-सहित है और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित / 12. गृहवास बन्धन है और मुनि-पर्याय मुक्ति / 13. गृहवास सावध है और मुनि-पर्याय निरवद्य / 14. गृहस्थों के कामयोग सर्व-सुलभ हैं। 15. सुख या दुःख अपना-अपना होता है। 16. मनुष्य जीवन चंचल है और अनित्य है। 17. मैंने इससे पूर्व भी अनेक पाप किए हैं। 18. कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। १-दशवकालिक, चूलिका १।सू०१ /