Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 165 5. व्याख्या-ग्रन्थों के सन्दर्भ में : आहार-चर्या वह पिघलती नहीं। ऐसी स्थिति में भी गोला नहीं बनाया जा सकता। लाख का गोला तभी बन सकता है जबकि उसे न अग्नि से अति दूर रखा जाए और न अति निकट / इसी प्रकार भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि यदि अतिभूमि (भिक्षुओं के लिए गृह में निर्धारित भूमि) से आगे चला जाता है तो गृहस्वामी को अविश्वास हो सकता है, अप्रीति हो सकती है। यदि वह बहुत दूर खड़ा रहता है तो पहली बात है कि दृष्टिगोचर न होने के कारण उसे भिक्षा ही नहीं मिलती और दूसरी बात है कि गृहस्थ कैसे देता है, उसकी एषणा नहीं हो पाती। इसलिए मुनि भिक्षा-भूमि की मर्यादा को जान कर उससे अति दूर या अति निकट न ठहरे, उचित स्थान पर ठहरे / ' 13. पुत्र: ___जैसे कोई पुरुष अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में अपने पुत्र का मांस खाता हैधन्य सार्थवाह ने अपनी पुत्री 'सुसुमा' का मांस केवल जीवित रह कर राजगृह पहुँचने के लिए खाया था, किन्तु वर्ण, रूप, बल आदि बढ़ाने के लिए नहों—वैसे ही मुनि निर्वाणलक्ष्य की साधना के लिए आहार करे किन्तु वर्ण, रूप आदि बढ़ाने के लिए नहीं / 2 14. उदक : - जिस प्रकार एक वणिक ने रत्नों की सुरक्षा के लिए अपेय जल पीया था, उसी प्रकार मुनि रत्नत्रयी—ज्ञान, दर्शन और चारित्र—की सुरक्षा के लिए आहार करे।3 तथा वृक्षों की यह प्रकृति है कि वे अपते अनुकूल ऋतु में पुष्पित होते हैं और उचित १-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 13 : . जहा जंतुमि गोलए कज्जमाणे जइ अम्गिणा अतिल्लियाविज्जइ ता अतिदवत्तणेण न सक्कइ काउं, अह व नेवाल्लियाविज्जइ नो चेव निग्घरति, णातिदूरे णातिआसण्णे अ कए सकइ बंधिउं, एवं भिक्खापविट्ठो साहू जइ अइभूमीए विसइ तो तेसिं अगारहत्थाणं अप्पत्तियं भवइ तेण य संकणादिदोसा, अह दूरे तो न दीसइ एसणाघाओ य भवइ, तम्हा कुलस्स भूमि जाणित्ता पाइद्दूरे णासण्णे ठाइयव्वं / २-वही, पृष्ठ 13 / ३-वही, पृष्ठ 13 /