Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 224 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन (2) कच्छपी—वह अन्त में पतली और मध्य में विस्तीर्ण होती थी। ... (3) मुष्टि-वह लम्बाई में चार अंगुल अथवा वृत्ताकार होती थी अथवा चार अंगुल लम्बी, चतुष्कोण वाली होती थी। (4) संपुटक—यह दो फलकों में बंधी हुई होती थी और (5) सुपाटिका-इसका विस्तार अधिक और मोटाई कम होती थी। यह लम्बी भी होती थी और छोटी भी। सम्भवतः इसका आकार चोंच जैसा होता था। धातु : ___ सोना केवल आभूषण बनाने के ही काम नहीं आता था, वह अन्यान्य कार्यों में भी प्रयुक्त होता था। उसके आठ गुण प्रसिद्ध थे-(१) विषघाती-विष का नाश करने वाला / (2) रसायन-यौवन बनाए रखने में समर्थ। (3) मंगलार्थ-मांगलिक कार्यों में प्रयुक्त द्रव्य / (4) प्रविनीत—यथेष्ट प्रकार के आभूषणों में परिवर्तित होने वाला। (5) प्रदक्षिणावर्त–तपने पर दीप्त होने वाला / (6) गुरु-सार वाला / (7) अदाह्य-अग्नि में न जलने वाला / (8) अकुथनीय-कभी खराब न होने वाला। - जो सोना कष, छेद, ताप और ताड़ना को सह लेता, वह विशुद्ध माना जाता था। सोने पर चमक लाने के लिए गोपीचन्दन का प्रयोग किया जाता था। यह मिट्टी सौराष्ट में होती थी इसलिए उसे सौराष्ट्रिका कहा जाता था। कई मनुष्य कृत्रिम स्वर्ण भी तैयार करते थे। वह विशुद्ध सोने जैसा होता था परन्तु कष, छेद आदि सहन नहीं कर सकता था। १-(क) दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 351 : विसघाइ रसायण मंगलत्य विणिए पयाहिणावत्ते। गुरुए अडज्म कुत्थे अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिओ // (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 263 / २-दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 352: चउकारणपरिसुद्धं कसछेअणतावतालणाए / जं तं विसघाइरसायणाइगुणसंजु होइ॥ . ३-जिनदास चू र्णि, पृ० 179: सोरद्विया उवरिया, जीए सुवण्णकारा उप्पं करेंति सुवण्णस्स पिंडं। ४-(क) दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 354 / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 263 /