Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 1. अन्तरङ्ग परिचय : साधना के अंग 95 स्पृष्ट होने पर मुनि उनसे पराजित न हो—अनाचार का सेवन न करे। साधना में चलते-चलते जो कष्ट आ पड़ते हैं, उन्हें सम्यक्-भाव से सहन करने वाले को निर्जरा (कर्मक्षय) होती है / मांस और रक्त के उपचय से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है। इसलिए कहा है कि अनशन के द्वारा शरीर को कृश करो।४ शरीर के प्रति जिनका अत्यन्त वैराग्य हो जाता है, जो पौद्गलिक पदार्थों को आत्मा से सर्वथा पृथक् करने के लिए चल पड़ते हैं, वे तपस्वी विशुद्ध तपस्या के द्वारा संचित कर्म-मल को धो डालते हैं / कष्ट-सहन जैन-परम्परा का लक्ष्य नहीं रहा है। वह केवल साधन रूप से स्वीकृत है।६ जैन-परम्परा में तप का अर्थ कोरा कष्ट-सहन करना नहीं है / आत्म-शुद्धि के दो साधन हैं....संवर और तप। संवर के द्वारा आगामी कर्म का निरोध और तप के द्वारा पूर्व-संचित कर्म का क्षय होता है / " भगवान् महावीर ने कर्म-क्षय के समस्त माधनों को तप कहा है और उन्हें बाह्य और आभ्यन्तर- इन दो भागों में बाँटा है। देह को अधिक कष्ट देने से अधिक कर्म-क्षय होता है-ऐसा अभिमत नहीं है। १-उत्तराध्ययन, 2046 : (क) एए परिसहा सव्वे, कासवेण पवेइया / __ जे भिक्खू न विहन्नेज्जा, पृट्ठो केणइ कण्हुई // (ख) सूत्रकृतांग, 1 / 2 / 1 / 13 : से पुढे अहियासए। - २-स्थानांग, 5 // 1 // 409 : सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स किं मन्ने कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति / ____३-स्थानांग, 4 / 4 / 356 / ४-सूत्रकृतांग, 1 / 2 / 1 / 14 वृत्ति : किसए देहमणासणाइहिं—अनशनादिभिर्देहं 'कर्शयेत्'—अपचितमांसशोणितं विदध्यात् / ५-सूत्रकृतांग, 1 / 2 / 1 / 15 / ६-जसट्टाए कीरति नग्गभावे..... 'अंतं करेंति / ७-उत्तराध्ययन, 30 / 1-6 /