Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
View full book text
________________ 16 दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन रचना का उद्देश्य : शय्यम्भव सूरि भगवान् महावीर के चतुर्थ पट्टधर थे। वे पत्नी को गर्भवती छोड़ कर दीक्षित हुए / पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम मनक रखा गया। वह आठ वर्ष का हो गया। एक दिन उसने अपनी माँ से पिता के बारे में पूछा। माँ ने बताया- "बेटा ! तेरे पिता मुनि बन गए। वे अब आचार्य हैं और अभी-अभी चम्पा नगरी में विहार कर रहे हैं।" मनक ने माँ से अनुमति ली और चम्पा नगरी जा पहुंचा। आचार्य शौच जाकर आ रहे थे, बीच में ही मनक मिल गया। आचार्य के मन में कुछ स्नेह का भाव जागा और पूछा-"तू किसका बेटा है ?" "मेरे पिता का नाम शय्यम्भव ब्राह्मण है", मनक ने प्रसन्न मुद्रा में कहा / आचार्य ने पूछा-"अब तेरे पिता कहाँ हैं ?" मनक ने कहा-“वे अब आचार्य हैं और इस समय चम्पा में हैं।" आचार्य ने पूछा- "तू यहाँ क्यों आया ?" मनक ने उत्तर दिया-“मैं भी उनके पास प्रव्रज्या लूँगा" और उसने पूछा-"क्या तुम मेरे पिता को जानते हो ?" आचार्य ने कहा- "मैं केवल जानता ही नहीं हूँ किन्तु वह मेरा अभिन्न ( एक शरीरभूत ) मित्र है / तू मेरे पास ही प्रव्रजित हो जा।" उसने यह स्वीकार कर लिया। संभव है कि शय्यम्भव ने सारा रहस्य उसे समझा दिया और पिता-पुत्र के सम्बन्ध को प्रकट करने का निषेध कर दिया। आचार्य स्थान पर चले आए। उसे प्रव्रजित किया। आचार्य ने विशिष्ट ज्ञान से देखा-"यह अल्पायु है। केवल छह मास और जीएगा / मुझे इससे विशिष्ट आराधना करानी चाहिए”—यह सोच उन्होंने मनक के लिए एक नए आगम का निर्माण करना चाहा। विशेष प्रयोजन होने पर चतुर्दश-पूर्वी और अपश्चिम दशपूर्वी निर्वहण कर सकते हैं। आचार्य ने सोचा-'मेरे सम्मुख यह विशेष प्रयोजन उपस्थित हुआ है। इसलिए मुझे भी निर्वृहण करना चाहिए।"५ यही प्रेरणा दशवकालिक के वर्तमान रूप का निमित्त बनी। रचना-काल : . भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुधर्मा स्वामी बीस वर्ष तक जीवित रहे / 2 उनके उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी थे। उनका आचार्य-पद चौवालीस वर्ष रहा। तीसरे १-दश० हारिभद्रीय टीका, पत्र 12 : तं चउद्दसमुवी कम्हिवि कारणे समुप्पन्ने णिज्जूहति, दसपुन्वी पुण अपच्छिनो अवस्समेव णिज्जूहइ, ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं तो अहमवि णिज्जूहामि, ताहे आढत्तो णिज्जहिउं..........। २-पट्टावलि समुच्चय ( तपागच्छ पट्टावली ), पृष्ठ 42 : श्री वीराविंशत्या वर्षेः सिद्धिं गतः। ३-वही, पृष्ठ 42 : श्रीवरात् चतुःषठिवः सिद्धः /