Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श असिणाणमहिटगा (6 / 62) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। समत्तमाउहे (8 / 61) यहाँ मकार अलाक्षणिक है / वयणंकरा (9 / 2 / 12) ___ यहाँ मकार अलाक्षणिक है / उवहिणामवि (6 / 2 / 18) यहाँ मकार अलाक्षणिक है / निक्खम्म-माणाए (10 / 1) यहाँ मकार अलाक्षणिक है। १०-विशेष-विमर्श धिरत्थु ते जसोकामी ( 2 / 7) / चूर्णिकार और टीकाकार ने 'जसोकामी' की 'यशःकामिन्' और अकार लोप मान कर 'अयशःकामिन्'-इन दो रूपों में व्याख्या की है। छत्तस्स य धारणट्ठाए (3 / 4) ____टीकाकार लिखते हैं अनर्थ—बिना मतलब अपने या दूसरे पर छत्र का धारण करना अनाचार है / 2 आगाढ़ रोगी आदि के द्वारा छत्र-धारण अनाचार नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि टीकाकार अनर्थ छत्र-धारण करने का अर्थ कहाँ से लाए ? इसका स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार ने ही कर दिया है। उनके मत से सूत्र-पाठ अर्थ की दृष्टि से 'छत्तस्स य धारणमणट्ठाए' है। किन्तु पद-रचना की दृष्टि से प्राकृत-शैली के अनुसार, अकार और नकार का लोप करने से, 'छत्तस्स य धारणट्ठाए' ऐसा पद शेष रहा है। साथ ही वह कहते हैं--परम्परा से ऐसा ही पाठ मान कर अर्थ किया जा १-(क) 'जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 88 / (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 96 / २-हारिभद्रीय टीका, पत्र 117 : छत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति, आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वाऽनाचरितम् /