Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 92 दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४–पूर्व-मुक्त-भोग की स्मृति का वर्जन' ४–अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन का वर्जन ५-प्रणीत-रस-भोजन का वर्जन ५-स्त्री आदि से संसक्त शय्यासन का वर्जन ५-अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएँ 1 -- मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव १–मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव ,, ,, ,, रूप , , 2-, , , रूप , 3-, ,, ,, गन्ध ,, , 3-, , , गन्ध , , 4-,, , , रस ,, 4- , , , रस , , 5-,, , . , स्पर्श ,, , 5-,, ,, ,, स्पर्श ,, ,, भावनाओं की पूरी शब्दावलि की दशवकालिक के साथ तुलना की जाए तो इसका बहुत बड़ा भाग महाव्रतों की तुलना करते दिखाई देगा। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि दशवकालिक पाँच महाव्रत और उनकी पचीस भावनाओं की व्याख्या है। संयमी जीवन की सुरक्षा का दृष्टिकोण : . शिष्य ने पूछा- “भगवन् ! यह लोक छह प्रकार के जीव-निकायों से लबालब भरा हुआ है फिर अहिंसा पूर्वक शरीर धारण कैसे हो सकता है ? उसके लिए जाना, खड़ा होना, बैठना, खाना और बोलना—ये आवश्यक हैं। ये किए जाएँ तो हिंसा होती है, इस स्थिति में श्रमण क्या करे ?. वह कैसे चले, खड़ा रहे, बैठे, सोए, खाए और बोले ? यह प्रश्न अहिंसा और जीवन-व्यवहार के संघर्ष का है। समग्र दशवकालिक में इसी का समाधान है। संक्षेप में शिष्य को बताया गया कि यतनापूर्वक चलने, खड़ा रहने, बैठने, सोने, खाने और बोलने वाला अहिंसक रह सकता है। यतना कैसे की जाए इसकी व्याख्या ही दशवकालिक का विस्तार है। यह सत्प्रवृत्ति और निवृत्ति के संयम का दृष्टिकोण है। आत्मस्थ होने के लिए निवृत्ति, उसकी प्राप्ति में आने १.-प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 4: पुव्वरय पुव्वकीलिय विरइ समिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा। २-वही, संवरद्वार 4 आहारपणीयसिद्धभोयणविवज्जए। मिलाइए-दशवकालिक, 8 / 56 / 3- आचारांग, 2 / 3 / 15 /