Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : व्याकरण-विमर्श 37 सिग्धं ( 6 / 2 / 2) प्राकृत में श्लाघ्य के 'सग्घ' और 'सिग्घ' दोनों रूप बनते हैं। यह श्रुत का विशेषण है / अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'सग्घं' का प्रयोग किया है। सूत्रकृतांग ( 3 / 2 / 16 ) में भी 'सग्छ' रूप मिलता है-'भुंज भोगे इमे सग्धे' / सुयत्थधम्मा ( 6 / 2 / 23) इसकी दो व्युत्पत्तियाँ-'जिसने अर्थ-धर्म सुना है' अथवा 'धर्म का अर्थ सुना है जिसने'—मिलती हैं। मुंचऽसाहू ( 6 / 3 / 11) ____ यहाँ 'असाहू' शब्द के अकार का लोप किया गया है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने यहाँ समान की दीर्घता न कर कितंत ( कृत्तान्त—कृतो अन्तो येन ) की तरह 'पररूप' ही रखा है। जिनदास महत्तर ने ग्रन्थ-लाघव के लिए अकार का लोप किया है-ऐसा माना है।४ टीकाकार ने प्राकृतशैली के अनुसार 'अकार' का लोप माना है।" यहाँ 'गुण' शब्द का अध्याहार होता है-'मुंचसाधुगुणा' अर्थात् असाधु के गुणों को छोड़ / 6 वियाणिया ( 6 / 3 / 11) टीकाकार ने 'वियाणिया' का संस्कृत-रूप 'विज्ञापयति' किया है किन्तु इसका संस्कृत-रूप जो ‘विज्ञाय' होता है, वह अर्थ की दृष्टि से सर्वथा संगत है। १-(क) अगस्त्य चूर्णि : __ सुत्तं च सग्धं साघणीयमविगच्छति। (ख) हारिभद्रीय टीका, पत्र 247 : श्रुतम् अंगप्रविष्टादि श्लाध्यं प्रशंसास्पदभतम् / २-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 317 : सुयोत्यथम्मो जेहिं ते सुतत्थधम्मा गीयत्यित्ति वुत्तं भवइ, अहवा सुओ अत्यो धम्मस्स जेहिं ते सुतत्थधम्मा। ३-अगस्त्य चूर्णि : एत्थ ण समाणदीर्घता 'किन्तु पररूवं कतंत वदिति। ४-जिनदास चूर्णि, पृष्ठ 322 : गंथलाघवत्थमकारलोवं काऊण एवं पढिज्जइ जहा मुंच साधुत्ति / ५-हारिभद्रीय टीका, पत्र 254 / ६-अगस्त्य चूर्णि: . मुंचासाधु गुणा इति वयण सेसो।