Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ 1. बहिरङ्ग परिचय : दशवकालिक के कर्ता और रचनाकाल 17 आचार्य प्रवर स्वामी हुए। उनका आचार्य-काल ग्यारह वर्ष का है। प्रभव स्वामी ने एक दिन अपने उत्तराधिकारी के बारे में सोचा। अपने गण और संघ को देखा तो कोई भी शिष्य आचार्य-पद के योग्य नहीं मिला। फिर गृहस्थों की ओर ध्यान दिया। राजगृह में शय्यम्भव ब्राह्मण को यज्ञ करते देखा। वे उन्हें योग्य जान पड़े। आचार्य राजगृह आए / शय्यम्भव के पास साधुओं को भेजा। उनसे प्रेरणा पा वे आचार्य के पास आए, सम्बुद्ध हुए और प्रवजित हो गए। प्रभव स्वामी का आचार्य-काल ग्यारह वर्ष का है' और शय्यम्भव के मुनि-जीवन का काल ग्यारह वर्ष का है। वे अठाईस वर्ष तक गृहस्थ-जीवन में रहे, ग्यारह वर्ष मुनिजीवन में रहे, तेईस वर्ष आचार्य या युग-प्रधान रहे। इस प्रकार 62 वर्ष की आयु पाल कर वीर-निर्वाण सं० 68 में दिवंगत हुए।२ उक्त विवरण से जान पड़ता है कि प्रभव स्वामी के आचार्य होने के थोड़े समय पश्चात् ही शय्यम्भव मुनि बन गए थे, क्योंकि उनका आचार्य-काल और शय्यम्भव का मुनि-काल समान है—दोनों की अवधि ग्यारह-ग्यारह वर्ष की है। वीर-निर्वाण के 36 वें वर्ष में शय्यम्भव का जन्म हुआ और 64 वें वर्ष तक घर में रहे। मुनि होने के 8 या 81 वर्ष के पश्चात् मनक के लिए दशवकालिक का निर्वृहण किया। इस प्रकार दशवकालिक का रचना-काल वीर-निर्वाण सम्वत् 72 के आसपास उपलब्ध होता है और यह प्रभव स्वामी की विद्यमानता में निर्मूढ किया गया, यह उक्त काल-गणना से स्पष्ट है। - दशवकालिक का रचना-काल डा० विन्टरनित्ज ने वीर-निर्वाण के 18 वर्ष बाद माना है। प्रो० एम० वी० पटवर्धन का भी यही मत रहा है। किन्तु यह काल-निर्णय पट्टावली के कालानुक्रम से नहीं मिलता। १-पट्टावलि समुच्चय ( प्र०मा ) ( तपागच्छ पट्टावली ), पृष्ठ 43 : व्रतपर्याये एकादश युगप्रधानपर्याये चेति / . २-वही, पृष्ठ 43 : स चाष्टाविंशतिवर्षाणि गृहस्थपर्याये, एकादश व्रते, त्रयोविंशतियुगप्रधानपर्याये चेति सर्वायुर्द्विषष्ठिवर्षाणि परिपाल्य श्रीवीरादष्टनवतिवर्षा तिक्रमे स्वर्गभाक् / ३-हारिभद्रीय टीका, पत्र 11,12 : जया सो अट्ठवरिसो जाओ ताहे सो मातरं पुच्छइ को मम पिओ ?, सा भणइ तव पिओ पव्वइओ, ताहे सो दारओ णासिऊणं पिउसगासं पढिओ... सो पव्वइओ। 4-A History of Indian Literature, Vol. II, page 47, F. N. 1. 4-The Dasavaikalika Sutra : A Study, page 9.