Book Title: Dashvaikalik Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ ---- 1. बहिरङ्ग परिचय : रचना-शैली 16 विषय को स्पष्ट करने के लिए उपमाओं का भी यथेष्ट प्रयोग किया है। रथनेमि और राजीमती की घटना के सिवाय अन्य किसी घटना का इसमें स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कहीं-कहीं घटना के संकेत अवश्य दिए हैं। 5 / 2 / 5 में क्रिया व पुरुष का आकस्मिक परिवर्तन पाठक को सहसा विस्मय में डाल देता है। यदि चूर्णिकार ने इस श्लोक की पृष्ठभूमि में रही हुई घटना का उल्लेख न किया होता, तो यह श्लोक व्याकरण की दृष्टि से अवश्य ही विमर्शनीय बन जाता। ___ इसी प्रकार 114 में हुआ उत्तमपुरुष का प्रयोग भी सम्भव है किसी घटना से सम्बद्ध हो, पर किसी भी व्याख्या में उसका उल्लेख नहीं है। अनुष्टुप् श्लोक वाले कुछ अध्ययनों के अंत भाग में उपजाति आदि वृत्त रख कर आचार्य ने इसे महाकाव्य की कोटि में ला रखा ( देखिए अध्ययन 6,7 और 8 ) / कहींकहीं प्रश्नोत्तरात्मक-शैली का भी प्रयोग किया गया है ( देखिए 47.8 ) / परन्तु ये प्रश्न आगमकर्ता ने स्वयं उपस्थित किए हैं या किसी दूसरे व्यक्ति ने, इसका कोई समाभान नहीं मिलता / बहुत सम्भव है कि मुमुक्षु कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए और कैसे बोले ?–ये प्रश्न आचार्य के सामने आते रहे हों और रचना के प्रसंग आने पर आचार्य ने उनका स्थायी समाधान किया हो। गृहस्थ और मुनि के चलने-बोलने आदि में अहिंसा की मर्यादा का बहुत बड़ा अन्तर होता है, इसलिए प्रव्रज्या ग्रहण के अनन्तर आचार्य नव-दीक्षित श्रमण को चलनेबोलने आदि की विधि का उपदेश देते हैं। भगवान महावीर ने महाराज श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार को दीक्षित कर आचार-गोचर और विनय का उपदेश देते हुए कहा"देवानुप्रिय ! अब तुम श्रमण हो, इसलिए तुम्हें युग-मात्र भूमि को देख कर चलना चाहिए ( तुलना कीजिए 5 / 1 / 3.) ; निर्जीव-भूमि पर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ा रहना चाहिए; (मिलाइए 8 / 11, 13) ; जीव-जन्तु रहित भूमि को देख कर, प्रमार्जित कर बैठना चाहिए ( तुलना कीजिए 8 / 5,13 ) ; जीव-जन्तु रहित भूमि पर सामायिक या चतुर्विंशस्तव का उच्चारण और शरीर का प्रमार्जन कर सोना चाहिए ( मिलाइए 8 / 13 ) : साधर्मिकों को निमन्त्रण दे समभाव से खाना चाहिए ( तुलना कीजिए 5 / 1 / 64-66; 106 ) ; हित, मित और निरवद्य भाषा बोलनी चाहिए ( देखिए 7 वाँ अध्ययन) और संयम में सावधान रहना चाहिए। इसमें थोड़ा भी प्रमाद नहीं होना चाहिए।' 1 १-ज्ञाताधर्मकथा, 1 / सू०३०ः तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेइ सयमेव आयार जाव धम्माइक्खई, एवं देवा गुपिया ! गंत चिट्ठियन्वं णिसीयत्वं तुयट्टियव्वं मुंजियव्वं भासियव्वं एवं उट्टाय उट्टाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेण संजमियव्वं अस्सिंच ण अटे नो पमादेयव्वं /