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जैन साहित्य और महाकाल-मन्दिर*
जैन साहित्य के विशाल मन्दिर में जिन विभूतियों की पुनीत स्मृति पर शताब्दियों से भक्ति की पुष्पाञ्जलि चढ़ाई जा रही है, उनमें संवत्सर-प्रवर्तक श्री विक्रमादित्य और उनके माने हुए धर्मगुरु, प्रौढ़ विज्ञान्, महाकवि श्री सिद्धसेन दिवाकर, इन दो अमर व्यक्तियों की बेजोड़ जोड़ी है। दोनों के मिलाप कब-कब एवं कैसे-कैसे हुए, इस विषय की बहुत सी किंवदन्तियाँ जैन साहित्य में पाई जाती हैं। इनमें उज्जैन के महाकाल-वन के महादेव के दरबार में दोनों के उपस्थित होने का वह महत्त्वयुक्त वृत्तान्त है जिसके साथ श्रीमहाकालेश्वर मन्दिर की एक जैन मन्दिर से मानी हुई उत्पत्ति का अनोखा इतिवृत्त जुड़ा हुआ है।
उक्त इतिवृत्त की ऐतिहासिक प्रामाणिकता का अन्वेषण करने के मूलोद्देश्य से इस कहानी पर कुछ दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। इसका सारांश ( आगे उल्लिखित ग्रन्थों के आधार पर ) निम्नलिखित है - (1) महाकालवन में विक्रमादित्य और सिद्धसेन
सिद्धसेन दिवाकर एक उच्च ब्राह्मणकुल में उत्पन्न और ब्राह्मण विद्या के पक्के पण्डित होकर जैन मुनि बन गए थे। अपने संस्कृत-ज्ञान के अभिमान में जैनशास्त्र की प्राकृत भाषा को गौरवहीन और अयोग्य बताने का साहस करते हुए उन्होंने जैन आगम को संस्कृत में अनुवादित करने का बीड़ा उठाया था। आगम-प्ररूपक महामुनियों के प्रति ऐसा अपमानसूचक विचार प्रकट करने के दण्ड में सिद्धसेन को जैन मुनिवेश छिपाकर बारह वर्ष पर्यन्त अज्ञातरूप में विचरते रहने का कठोर प्रायश्चित्त लेना पड़ा। विचरते-विचरते वह हरसिंगार के फूलों से रंगित भिक्षुक-वेष धारण करके महाकालवन के शिव-मन्दिर में आए थे। श्री राजशेखर सूरि कृत 'प्रबन्धकोश'' (ई. सन् 1351 ), श्रीतपाचार्यकृत 'कल्याण-मन्दिर स्तोत्र टीका' (रचनाकाल अज्ञात), श्री संघतिलक सूरि कृत 'सम्यक्त्वसप्ततिका टीका' (ई. सन् 1366), श्री शुभशील गणि कृत 'विक्रमचरित्र (ई० सन् 1443 या 1434? ) और श्री विजयलक्ष्मी सूरि कृत 'उपदेशप्रासाद' (ई. सन् 1778) के अनुसार वह 'महाकाल' या 'महंकाल' का मन्दिर था। 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' ( रचनाकाल अज्ञात) और मेरुतुंग सूरि कृत 'प्रबन्ध चिन्तामणि' आदर्श 'डी" (ई. सन् 1305) के
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Published in Vikrama Smrti Grantha, Scindia Oriental Institute, Gwalior, V.S. 2001.
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